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________________ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६२६. पंचिंतिरि०अपज्ज० सव्वपयडि. उक्क० लोग० असंखे भागो, अणुक्क० लो० असं०भागो सबलोगो वा । एवं सब्यमणुस-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-बादरपुढविपज्ज०-बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्जत्त-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयपज्ज०-तसअपज्जचे ति । णवरि बादरपुढवि०-आउ०-वणप्फदिपत्य०पज० उक्क० णव चोदसभागा वा देसूणा । ६२७. देव० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अह-णव चो० देसूणा । चाहिये । तथा 'अथवा' कह कर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है वह नीचे छह राजु और ऊपर छह राजुकी अपेक्षा जानना चाहिये । नीचेके छह राजु तो स्पष्ट हैं परन्तु ऊपरके छह राजु उपपाद पदकी अपेक्षा जानना चाहिये । बात यह है बारहवें कल्पतकके देव मर कर तिर्यच होते हैं। अब नीचेके जो देव सोलहवें कल्पतक विहार करके गये और वहांसे मरकर तियचोंमें उत्पन्न हुए उनकी अपेक्षा ऊपर छह राजु प्राप्त हो जाते हैं। शेष कथन सुगम है। ६६२६. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सब मनुष्य, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। विशेषार्थ—जो तियेच या मनुष्य मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हो कर और स्थितिघात किये बिना पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । अब यदि इनके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिये यहां उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श तो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि इनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही है। पर अतीतकालीन स्पर्श कि बन जाता है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदके द्वारा इन्होंने सब लोकका स्पर्श किया है। कुछ मार्गणाएं और हैं जिनमें पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श प्राप्त होता है, अतः उनके कथनको इसी प्रकार कहा है। जैसे सब मनुष्य आदि । किन्तु इनमेंसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त इन तीन मार्गणाओं में कुछ अपवाद है । बात यह है कि इनमें देव मर कर भी उत्पन्न होते हैं, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछकम नौ बटे चौदह भाग प्राप्त होता है। यहाँ नौ भागसे नीचेके दो राजु और ऊपरके सात राजु लेना चाहिये। ६६२७. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले सबल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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