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________________ wwwwwwww vn गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियपोसणं ६६३०. पंचिंदिय-पंचिं०पज० तस-तसपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तगोक० उक्क० ओघं । अणुक्क. अह चो० देसूणा सव्वलोगो वा । इत्थि०-पुरिस० उक्क० अह-बारह चोदसभागा वा देसणा । अणुक्क० अह चोद्दस० सबलोगो वा। सम्मत्तसम्मामि० उक्क० अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं चक्खु०-सण्णि-पंचमण-पंचवचि० । विशेषार्थ-जो तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके और स्थितिघात किये बिना बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि मार्गणाओंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके उक्त कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । अब यदि इनके वर्तमान क्षेत्रका विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि उन बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा ऐसे जीव सब लोकमें उत्पन्न होते हैं. अतः अतीतकालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है। हां यहां इतनी विशेष बात है कि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त इनमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका अतीत कालीन स्पर्श भी सबलोक नहीं प्राप्त होता, क्यों किऐसे जीवोंकी उत्पत्ति नियत क्षेत्र में ही होती है, अतः इन्होंने सब लोकको अतीत काल में भी स्पर्श नहीं किया है। विशेष खुलासाके लिये निम्न दो बातें ध्यानमें रखनी चाहिये । पहली यह कि उक्त मार्गणावाले जीव पृथिवियोंके आश्रयसे रहते है और दूसरी यह कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और स्थितिघात किये बिना इनमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । अब ऐसे जीवोंके पृथिवियोंकी ओर गमन करने पर सब लोक नहीं प्राप्त होता, अतः यहां सब लोक स्पर्शका निषेध किया है। तथा उक्त सब मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो सब लोक स्पर्श बतलाया है वह स्पष्ट ही है। औदारिककाययोगवालोंका स्पर्श तियचोंके समान है, यह स्पष्ट ही है। औदारिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं जीवोंके प्राप्त होती है जो देव और नरक पर्यायसे आकर औदारिकमिश्रकाययोगी होते हैं, अतः इनके स्पर्शमें क्षेत्रसे अन्तर नहीं पड़ता, इसीलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। ६६३०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायवालोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है : तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अतुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनवाले, संज्ञी, पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ -मिथ्यात्व आदि २४ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो ओघसे स्पर्श Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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