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३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ५३२. आभिणि-सुद०-ओहि० उक्कस्सभंगो। णवरि छण्णोक० जह० जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं संजद०. सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०सम्मादि०-खइय०-वेदय० । णवरि खवगसेढिम्मि छण्णोक० ज० ओघं । मणपज्ज. अहणोक० पुरिस०भंगो । सेस० उक्कस्सभंगो । अन्तर्मुहूर्तं कहा । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति होती है अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा । जो बादर एकेन्द्रिय जीव जघन्य स्थितिके बन्धकालमें मरकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ उसके अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालके अन्तिम समयमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। मिथ्यात्व गणस्थानका जघन्य है और एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अब कोई जीव इतने कालतक निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहा और अन्तमें बादर एकेन्द्रिय हुआ तथा वहाँ सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध व सत्त्व करके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालके अन्तमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस जीवके उक्त काल तक सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः मत्यज्ञानी
और ताज्ञानी जीवके सात नोकषायों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाके अन्तिम समयमें प्रात होती है, अतः इनके रक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा मिथ्यात्वमें उक्त दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही पाया जाता है, अतः इनके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जो उपरिम अवेयकका जीव अन्तिम समयमें सासादनको प्राप्त हो जाता है उसके विभंगज्ञानके रहते हुए मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः विभंगज्ञानीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा उपरिम अवेयकके देवको छोड़ कर अन्य देव तथा नारकी जीवके अन्तिम समयमें सासादनको प्राप्त होने पर विभंगज्ञानमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। विभंग ज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जिस प्रकार एकेन्द्रियोंके घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये।
६५३१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें जघन्य स्थितिका भंग उत्कृष्ट स्थितिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपकश्रेणीमें छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें आठ नोकषायोंका भंग पुरुषवेदके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग अपनी उत्कृष्ट स्थितिके समान है। .
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