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________________ गा० २२ ] द्विदिवसीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो ३११ $ ५३३. असंजद० मिच्छत्त० जह० जहण्णुक० एगसमओ । अज० केवचिरं ? अनादिअपज्जवसिदो, श्रणादिसपज्जवसिदो सादिसपज्जव । जो सो सादिसपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्द सो – जह० अंतोमु०, उक्क० उवडपोग्गलपरियॣौं । सम्मत्त ०- सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एगसमग्र । अज० ज० एस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरेयाणि । अनंताणु ० चउक्क० ओघ । बारसक०णवणोक० मदि० भंगो | अचक्खु० ओघं । विशेषार्थ - क्षपकश्रेणी में जब छह नोकषायोंका अन्तिम काण्डक प्राप्त होता है तब उनकी जघन्य स्थिति होती है और इसका काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार संयत आदि मार्गणाओं में जानना । इसका यह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओं में जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल कह आये हैं उसी प्रकार यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कहना चाहिये, क्योंकि इनमें परस्पर कालकी अपेक्षा समानता देखी जाती है । किन्तु इनमेंसे जिन मार्गणाओं में क्षपकश्रेणी सम्भव हो उन्हींमें छह Pravrritt जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान जानना चाहिये शेषमें नहीं । मन:पर्ययज्ञान पुरुषवेदी जीवके ही होता है अतः इनके आठ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल पुरुषवेदियोंके समान कहा । शेष सुगम I ९५३३. असंयतों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है | तथा अजघन्य स्थितिका कितना काल है ? अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि - सान्त इस प्रकार तीन तरहका काल है। उनमें जो सादि- सान्त काल है उसका यह कथन है । वह जघन्यसे श्रन्तमुहूर्त और उत्कृष्टसे उपाधे पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल श्रोघके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका काल मत्ज्ञानियोंके समान है । अचतुदर्शन में ओघ के समान है । विशेषार्थ - जो असंयत मिध्यात्वकी क्षपणा कर रहा है उसके मिथ्यात्वकी क्षपणाके अन्तिम समय में जघन्य स्थिति होती है, अतः असंयतके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । मूलमें असंयतके मिध्यात्वकी अजघन्य स्थिति के अनादिअनन्त, अनादिसान्त और सादिसान्त ये तीन भंग कहे हैं सो वास्तवमें ये असंयतत्व के साथ मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके तीन भंग हैं अतः उसके सम्बन्धसे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको तीन भागों में बाँट दिया है, क्योंकि ऐसा किये बिना असंयत के मिथ्यात्व की अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाना कठिन था । इनमेंसे सादि - सान्त असंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, अतः असंयतके मिथ्यात्व की अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा । असंयतके अपनी अपनी क्षपणा के अन्तिम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्यिध्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है तथा सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना के अन्तिम समय में भी जघन्य स्थिति होती है, अतः इसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । जब कोई संयत कृतकृत्यवेदकके काल में दो समय शेष रहने पर असंयत हो जाता है तब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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