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________________ Wwwanmandu गा० २२] द्विदिावहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिकालो ३०६ ५३१. णाणाणवादेण मदि-सुदअण्णा० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० ज० जह• एयसमओ, उक्क० अंतोमु । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० असंखेजा लोगा। सत्तणोक० जह० जहएणुक० एगस० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० अणंतकोलमसं० पो. परि० । सम्मत्त-सम्मामि० जह• जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। विहंग० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जह• जहण्णक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो। विशेषार्थ-जिस प्रकार मनोयोगी जीवके मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियोंकी जघन्य और . अजघन्य स्थितिका काल घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार चारों कषायवाले जीवोंके घटित कर लेना चाहिये। जो क्रोधादि कषायवाले जीव आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी क्षपणा कर रहे हैं उनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा । क्रोधकषायीके क्रोधवेदक कालके अन्तिम समयमें चार संज्वलनोंकी, मानकषायीके मानवेदक कालके अन्तिम समयमें तीन संज्वलनोंकी, मायाकषायवालेके मायावेदककालके अन्तिम समयमें दो संज्वलनोंकी और लोभकषायवाले जीवके लोभकषायवेदककालके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति होती है। तथा मानादि कषायवाले जीवोंके शेष कषायोंकी जघन्य स्थिति अपनी-अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, अतः इनके चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान एक समय कहा। तथा क्रोधादि कषायवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। ६५३१. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तम हर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल ह जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमु हतं और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नौषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। विशेषार्थ--मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान एकेन्द्रियोंसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तकके सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके होते हैं। किन्तु यहाँ जघन्य स्थितिका प्रकरण है अतः मुख्यतः एकेन्द्रियोंकी स्थितिका ग्रहण किया है। एकेन्द्रियोंमें भी सबसे कम बादर एकेन्द्रियों की जघन्य स्थिति होती है। जिसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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