SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिकालो २७५ अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सहिदी । कत्थ वि देसूणा ति भणंति; तत्थ पविसिय अणुक्कस्सहिदीए आदिकरणादो । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० [ एगसमओ । अणक्क० ] जह० एगसमो, उक्क० सगहिदी । पढमादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक श्रावलि प्रमाण है । तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। कहीं पर कुछ आचार्य नारकियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे कुछ कम है ऐसा कहते हैं सो वहाँ पर नरकमें प्रवेश कराके अनुत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ किया है ऐसा जानना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका खुलासा जिस प्रकार ओघमें कर आये हैं उसी प्रकार नारकियोंके कर लेना चाहिये । तथा जिसने अपने भवके उपान्त्य समयमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तिम समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उस नारकीके मिथ्यात्व और सोलह कषायों . की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा जो पूरी पर्यायमें अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण पाया जाता है। तथा जिस नारकीने भवके उपान्त्य समयमें एक समयतक नौ नोकषायोंमें सोलह कषायोंकी एक आवालिकम उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण किया है उस नारकीके भवके आन्तम समयमें नौ नोकेषयोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । अथवा जिस प्रकार ओघमें नौ नोकषायोंका जघन्यकाल घटित किया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये। तथा जिसके पूरी पर्यायमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं हुआ और न पूर्व पर्यायमें मरते समय एक आवलि कालके भीतर उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हुआ उस नारकी के नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण पाया जाता है । यहां मूलमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह बताया है कि नरकमें प्रवेश कराके अनुत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ कराना चाहिये । जो मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है, अतः यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो जीव नरकमें उत्पन्न होते ही सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर लेता है उसके नरकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । तथा जो प्रारम्भके और अन्तके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर जीवन भर वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा है। या जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके मध्य या अन्तमें पुनः पुनः यथायोग्य सम्यक्त्वका प्राप्त किया है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल नरकका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy