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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ भणिदं । हिदिघादमकुणमाणा वि दीहकालेण सम्म पडिवज्जता अत्थि तप्पडिसेहह सव्वलहुग्गहणं कदं । विदियादिसमएसु अधहिदिगलणाए गलिदेसु उक्कस्सहिदिसंतं ण होदि त्ति पढमसमए वेदगसम्मादिहिस्से त्ति परूविदं । मिच्छाइटिणा अट्ठावीससंतकम्मिएण तिव्वसंकिलेसेण सागार-जागारउवजुत्तेण बद्धमिच्छत्तु क्कस्सहिदिसंतकम्मेण तत्तो परिवदिय अंतोमुहुत्तद्ध तप्पाश्रोग्गविसोहीए अवहिदेण अकदहिदिघादेण सव्वलहुएण कालेण वेदगसम्मत्तग्गहणपढमसमए मिच्छत्त क्कस्सहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छ
सु संकामिदाए सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिविहत्ती जायदि त्ति भणिदं होदि। अबंधपयडीसु बंधपयडी कथं संकमइ ? ण एस दोसो; बंधपयडीणं चेव बंधे थक्के पडिग्गहत्त फिदि णाबंधपयडीणं, अण्णहा अबंधपयडीण सम्मत्तादीणमभावो हज्ज। ण च एवं मोहणीयस्स अहावीसपयडिसंतुवएसेण सह विरोहादो । नहीं करके दीर्घकालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, अतः इसका प्रतिषेध करनेके लिये सूत्रमें सर्वलघु पदका ग्रहण किया है । सम्यक्त्व ग्रहण होनेके अनन्तर दूसरे आदि समयोंमें अधःस्थिति गलनाके द्वारा स्थितिके गलित हो जाने पर उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्व नहीं रहता है, अतः सूत्रमें वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें ऐसा कहा है । जो मिथ्यादृष्टि जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला है, जो जाग्रत रहते हुए साकार उपयोगसे उपयुक्त है, जिसने तीव्र संक्लेशसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर उसकी सत्ता प्राप्त करली है वह जब तीव्र संक्लेशरूप परिणामोंसे च्युत होकर अन्तमुहूर्त काल तक सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धिके साथ अवस्थित रहता हुआ स्थितिघात न करके सबसे लघु कालके द्वारा वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके पहले समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण कर देता है तब उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-बन्धप्रकृति अबन्ध प्रकृतियोंमें संक्रमणको कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्ध प्रकृतियोंके ही बन्धके रुक जाने पर उनमें प्रतिग्रहशक्ति नष्ट हो जाती है अबन्ध प्रकृतियोंकी नहीं, अन्यथा सम्यक्त्वादिक अबन्ध प्रकृतियों
व हो जायगा। परन्त ऐसा है नहीं. क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त कथनका मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्वके प्रतिपादक उपदेशके साथ विरोध आता है। अतः जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता किन्तु जो संक्रमण द्वारा ही अपने सत्त्वको प्राप्त होती हैं उनमें बन्ध प्रकृतिका संकमण हो सकता है इसमें कोई दोष नहीं है।
विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि जिस समय किसी प्रकृतिका बन्ध होता है उसी समय अन्य सजातीय प्रकृतिका उस बंधनेवाली प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है, क्योंकि तभी वह बंधने वाली प्रकृति प्रतिग्रह या पतगहरूप होती है। और इसीका नाम परप्रकृति संक्रमण है। यह संक्रमण मूल प्रकृतियोंमें और चारों आयुओंमें परस्पर नहीं होता। तथा इस प्रकारका संक्रमण दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें भी नहीं होता । तथा इस प्रकारका संक्रमण होते समय संक्रमित होनेवाली प्रकृतिका स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता और न स्थिति तथा अनुभागमें वृद्धि ही होती है, क्योंकि स्थितिघात और अनुभागघात
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