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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित्त २३३ * एवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती कस्स ? ४१०. सुगममेदं । * कसायाणमुकरसहिदि बंधिदूण आवलियादीदस्स। ४११. किमहमावलियादीदस्सुक्कस्ससामित्त दिजदि ? ण; अचलावलियमेत्तकालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सहिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो । कुदो एसो का सम्बन्ध अपकर्षणसे तथा स्थितिवृद्धि और अनुभागवृद्धिका सम्बन्ध उत्कर्षणसे है और अपकर्षण तथा उत्कर्षण एक ही प्रकृतिके कर्म परमाणुओंमें परस्पर होते हैं । इस नियमके अनुसार यहां शंकाकारका यह कहना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व बन्धरूप प्रकृतियां नहीं होनेसे उनमें प्रतिग्रहपना नहीं पाया जाता, अतः मिथ्यात्वका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण नहीं होना चाहिये । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि जो बँधनेवाली प्रकृतियां हैं उनका यदि बन्ध नहीं हो रहा है तो अबन्धकालमें उनमें ही प्रतिग्रहपना नहीं रहता है। उदाहरण के लिये जब साताका बन्ध होता है तभी वह प्रतिग्रहरूप है और तभी उसमें असातारूप कर्मपुंज संक्रमणको प्राप्त होता है । किन्तु जब साताका बन्ध नहीं होता तब उसका प्रतिग्रहपना नष्ट हो जाता है और ऐसी हालतमें असातारूप कर्मपुंज सातारूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त होता। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों अबन्ध प्रकृतियां हैं, अतः इनके विषयमें संक्रमणको उक्त नियम लागू नहीं है । इनमें तो प्रतिग्रहपना बन्धके बिना भी पाया जाता है और इसलिये इनमें मिथ्यात्वके कर्मपुंजके संक्रमण होनेमें कोई आपत्ति नहीं है। पर इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टि जीवके ही मिथ्यात्वका कर्मपुंज इन दो प्रकृतियोंमें संक्रमित होता है। अब यहां इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाना है, अतः अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस मिथ्यादृष्टि जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और संक्लेशपरिणामोंसे निवृत्त होकर तथा मिथ्यात्वका स्थितिकाण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालमें वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है उसके वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त करने के पहले समयमें अन्तमहूर्त कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण हो जाता है, अतः उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । शेष बातोंका खुलासा मूलमे किया ही है। * नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है । 7 ६४१०. यह सूत्र सुगम है। * जिसने कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक श्रावलीप्रमाण काल व्यतीत कर दिया है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। शंका-जिसने कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक प्रावली प्रमाण काल व्यतीत कर दिया है वही नौ नोकषायों के उत्कृष्ट स्वामित्वका अधिकारी क्यों है ? समाधान-नहीं, क्योंकि बंधी हुई सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अचलावली कालतक नौ नोकषायोंमें संक्रमण नहीं होता है, अतः सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबंधके बाद एक आवली काल व्यतीत होने पर ही नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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