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- जयभवलासहिदे कसावपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ णियमो ? साहावियादो । जदि णोकसायाणमण्णेसिं कम्माणमावलिऊणुक्कस्सद्विदिसंकमेण उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि तो मिच्छत्त कस्सहिदिं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणं णोकसाएसु संकामिय उक्कस्सहिदिविहत्ती किण्ण परूविज्जदे ? ण, दसणमोहणीयस्स चरित्तमोहणीयसंकमाभावादो । कसायाणं णोकसाएमु णोकसा. याणं च कसाएसु कुदो संकमो ? ण एस दोसो, चरित्तमोहणीयभावेण तेसिं पञ्चासत्तिसंभवादो । मोहणीयभावेण दंसणचरितमोहणीयाणं पञ्चासत्ती अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि ? ण, पडिसेज्झमाणदंसणचरिचाणं भिएणजादितणेण तेसिं पच्चासनीए अभावादो ( एवं जइवसहाइरियपरूविदउक्कस्ससामि देसामासियभावेण . सूचिदादेसं भणिय संपहि उच्चारणाइरियवक्खाणं पुणरुत्तभएण ओघ मोत्तण अदे विसयं वत्तइस्सामो।
६४१२. सत्तमु पुढवीसु तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज-पंचिं०
शंका-विवक्षित समयमें बंधे हुए कर्मपुंजका अचलावली कालके अनन्तर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों है ?
समाधान-स्वाभावसे ही यह नियम है ।
शंका-यदि अन्य कर्मोकी एक आवली कम उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमणसे नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है तो सत्तरकोडाकोड़ी सागर प्रमाण मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिको नोकषायोंमें संक्रमित करके उनकी उत्कृष्ट स्थिति आवलिकम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें संक्रमण नहीं होता है । शंका-कषायोंका नोकषायोंमें और नोकषायोंका कषायोंमें संक्रमण किस कारणसे होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अतः उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति पाई जाती है इसलिये उनका परस्परमें संक्रमण हो सकता है।
शंका-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं। इस रूपसे इनकी . भी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, अतः इनका परस्परमें संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि परस्परमें प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भिन्न जाति होनेसे उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है, इसलिये उनका परस्परमें संक्रमण नहीं होता है।
___ इस प्रकार जिसके द्वारा देशामर्षक भावसे आदेशकी सूचना मिलती है ऐसे यतिवृषभप्राचार्यके द्वारा कहे गये उत्कृष्ट स्वामित्वको कहकर अब पुनरुक्त दोषके भयसे उच्चारणाचार्यके द्वारा व्याख्यात ओघ स्वामित्वको छोड़कर आदेशविषयक स्वामित्वको कहते हैं
६४१२. सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच
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