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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिसामित्त * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्ती कस्स ? ९४०८. सुगममेदं पुच्छासुतं । * मिच्छत्तस्स उक्कस्सडिदि बंधिदूण अंतोमुहुत्त परिभग्गो जो डिदिद्यादमकादूण सव्वलहुसम्मत्तं पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिस्सि | २३१ ९४०९, जदि वि एत्थ अट्ठावीस संतकम्मियग्गहणं ण कदं तो वि अट्ठावीससंतकमिओत्ति णव्वदे; वेदगसम्मत्तग्गहणण्ण हाणुववत्तदो । सो विमिच्छादिवित्ति व्त्रदे; अण्णगुणहाणम्मि मिच्छत्तस्स बंधाभावादो । सो तिव्वसंकिलेसो त्ति उक्कस्सद्विदिबंधण्णहाणुववचीदो गब्बदे । एदम्हादो चेव ण सुत्तो जग्गंतो त्ति णव्वदे, सुम्मि तब्बंधासंभवादो । उक्कस्सहिदिं बंधतो पडिहग्गपढमादिसमएस सम्म ण गेहदित्ति जाणावणमंतोमुहुत्तद्ध पडिभग्गो त्ति भणिदं । पडिभग्गो उकसहिदिबंधुक्कस संकिले सेहि पडिणियत्तो होदूण विसोहीए पडिदो चि मणिदं होदि । द्विदिघादं काढूण विवेदसम्मतं के वि जीवा पडिवज्जंति तप्पडिसेहट' द्विदिवादमकाऊ ि * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? $ ४०८. यहू पृच्छासूत्र सुगम है । * मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जिसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहूर्त हो गया है और जो स्थितिका घात न करके अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । Jain Education International ९४०६. यद्यपि सूत्र में 'अट्ठावीससंतकम्मिय' पदका ग्रहण नहीं किया है तो भी ऐसा जीव अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है यह जाना जाता है, क्योंकि अन्यथा वेदकसम्यक्त्वका ग्रहण नहीं बन सकता है । और वह भी मिथ्यादृष्टि ही होता है यह जाना जाता है, क्योंकि अन्य गुणस्थान में मिध्यात्वका बन्ध नहीं हो सकता है । तथा वह मिध्यादृष्टि भी तीव्र संक्लेशवाला होता है यह जाना जाता है, अन्यथा मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं हो सकता है । इसीसे वह जीव सोता हुआ नहीं है किन्तु जागता हुआ है यह बात भी जानी जाती है, क्योंकि सोते हुएके मिथ्याय्वका उत्कृष्ट बन्ध नहीं हो सकता । उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे च्युत होकर प्रथमादि समयों में सम्यक्त्वको ग्रहण नहीं करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'जिसे उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहूर्त हो गया है' ऐसा कहा है । प्रतिभग्न शब्दका अर्थ उत्कृष्ट स्थिति बन्धके योग्य उत्कृष्ट सँक्लेशरूप परिणामोंसे प्रतिनिवृत होकर विशुद्धिको प्राप्त हुआ होता है । ि ही जीव स्थितिका घात करके भी वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं अतः इसके प्रतिषेध करनेके . लिये सूत्र में स्थितिका घात न करके यह कहा है । बहुतसे जीव ऐसे हैं जो स्थितिघात For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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