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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ भागो । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० जह० अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सत्तमाए मिच्छत्त-बारसक०-भयदुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोम० । सत्तणोक० जह. णत्थि अंतरं । अज० जहण्णक्क० एगस० । सम्मामि०-अणंताणु० णिरोघं । सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो । स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और दोनों जघन्य अजघन्यका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। तथा सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ- नरक में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति दूसरे विग्रहके समय एक बार ही प्राप्त हो सकती है, अतः यहाँ जघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं कहा । किन्तु इस जीव के पहले विग्रहमें और तृतीयादि समयों में अजघन्य स्थिति रहेगी अतः नरकमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कहा है । नरकमें उत्पन्न हुए कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवके ही सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः इसकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं। तथा इसकी अजघन्य स्थितिका अन्तर काल अनुत्कृष्ट स्थितिके समान घटित कर लेना चाहिये। जिस नारकीने उद्वेलना करके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्ति की है वह उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें पाकर पुनः उद्वेलना करके यदि पुनः उसकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करे तो उसे ऐसा करने में पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगता है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा । जिस नारकीने सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिके बाद जघन्य स्थितिको प्राप्त किया और तीसरे समयमें उपशमसम्यक्त्वी होकर पुनः अजघन्य स्थितिको प्राप्त कर लिया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। जो नारकी नरक में उत्पन्न होनेके पहले समयमें और अपनी आयुके अन्तिम समय में उद्वेलनाद्वारा सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिको प्राप्त करता है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । तथा जिस नारकीने उत्पन्न होनेके बाद दूसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी और अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । तथा नरकमें सम्भव विसंयोजनाके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर प्रमाण प्राप्त होता है। प्रथम नरकके कथनमें सामान्य नारकियोंके कथनसे कोई विशेषता नहीं है। किन्तु जहां सामान्य नारकियोंके कथनमें कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति कही हो वहां प्रथम नरककी कुछ कम उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये। दूसरेसे लेकर छठे नरक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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