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________________ गा० ३२ ) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिश्रेतर ५५९. आदेसेण गेरइएसु मिच्छत्त-बारसक० णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस । सम्मत्त० जह• पत्थि अंतरं । अज० अणुक्क०मंगो। सम्मामि० जह० जह० पलिदो० असंखे०भागो। अज० जह० एगस०, उक्का दोण्हं पि तेत्तीस० देसणाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० अज० जह० अंतोम०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसणाणि । पढमाए मिच्छत्त-बारसक णवणोक० जह० पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क एगस० । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मामि० जह० जह० पलिदोवमस्स असं०भागो। अज. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० जह० अजह० जह० अंतो०, उक्क सगहिदी देसूणा | विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० होता, क्योंकि ओघसे उन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितियाँ क्षपणाके अन्तमें ही प्राप्त होती हैं और क्षय होनेके पश्चात् पुनः इनका सत्त्व नहीं पाया जाता। किन्तु सम्यक्त्व और सन्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाके पश्चात् सम्यक्त्वके होने पर नियमसे सत्त्व हो जाता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनाके पश्चात् पुनः सत्त्व हो सकता है अतः इन प्रकृतियोंकी ओघसे अजघन्य स्थितियों का भी अन्तर पाया जाता है। उनमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिके अन्तरका खुलासा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान जानना चाहिये । तथा अनन्ता. नुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके बाद पुनः उसका सत्त्व प्राप्त करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धी चतुप्ककी विसंयोजना कर दी है वह यदि मिथ्यात्वमें आकर पुनः उसका सत्त्व प्राप्त करे तो उसे ऐसा करने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर लगता है। ६५५६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनों स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । पहली पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषयोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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