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________________ ३३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मणंताणुबंधिचउक्कस्स वि । णवरि अंतोमुहुत्तभंतरे दो वारं तेसिं विसंयोजणं काउण जहण्णंतरं वत्तव्वं । ® उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट। $ ५५७. सुगममेदं । एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदृण ओघतरपरूवणं करिय संपहि तेण सूचिदसेसमग्गणाओ अस्सिदण अंतरपरूवणाए कीरमाणाए उच्चारणमस्सिदूण कस्सामो। ६ ५५८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण ओदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अजह० णत्थि अंतरं। सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । अज. अणुक्कस्सभंगो। सम्मामि० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्ग० देसूणं । अज० अणुक्क भंगो। अणंताणु० चउक्क० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्ग० देसूणं । अज० ज० अंतोम०, उक्क० बेछावहिसागरो० देसूणाणि । एवमचक्खु०-भवसि०। स्थितिका जघन्य अन्तर प्राप्त होता है जिसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर दोबार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कराके जघन्य अन्तर कहना चाहिये । * तथा उस्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । ६५५७. यह सूत्र सरल है। इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर ओघ अन्तरका कथन करके अब सभी मार्गणाओंमें इसके द्वारा सूचित होनेवाले अन्तरका कथन उच्चारणाके आश्रयसे करते हैं ६५५८. जघन्य अन्तरका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्योंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-सब प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका उल्लेख चूर्णिसूत्रों की व्याख्या करते समय किया ही है अतः यहां अजघन्य स्थिति के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका उल्लेख किया जाता है-उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त हो जानेके बाद उससे न्यून जितनी स्थितियां प्राप्त होती हैं उन सबको अनुत्कृष्ट स्थिति कहते हैं तथा जघन्य स्थितिके अतिरिक्त जितनी स्थितियाँ होती हैं उन्हें अजघन्य स्थिति कहते हैं। इसके अनुसार ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थितियोंका अन्तर नहीं प्राप्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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