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________________ ३३१ गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअंतरं मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहणणहिदिविहत्तियस्स पत्थि अंतरं। ६५५५. कुदो १ ख विदकम्माणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो। ® सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहएणहिदिविहत्तियस्स अंतरं जहरणेण अंतोमुहुत्तं। ___५५६. तं जहा-उव्वेल्लणाए सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहिदिसंतकम्मं कुणमाणो सम्मत्ताहिमुहो होदूणंतरचरिमफालीए सह उव्वेल्लणचरिमफालिमवणिय तत्तोप्पहुडि मिच्छत्तपढमहिदीए समयूणावलियमेत्तमणुप्पविसिय तत्थ पयदजहण्णहिदिसंतकम्मस्सादि कादर्णतरिय कमेण मिच्छत्तपढमहिदि गालिय पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पुणो अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय पुणो अधापवत्तअपुवकरणाणि करिय अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मिच्छत्तं खविय पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं परसरूवेण संकामिय जहाकमेण अधहिदिगलणाए उदयावलियणिसेगेसु गलमाणेसु एगणिसेगहिदीए दुसमयकालाए सेसाए अंतोमुहुत्तपमाणं सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णंतरं होदि । एव * मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है। ६५५५. शंका उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर क्यों नहीं होता ? समाधान—क्योंकि क्षयको प्राप्त हुए कर्मोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती है और इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति क्षपणाके अन्तमें ही प्राप्त होती है, अतः इनकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता। ___* सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। ६५५६. वह इस प्रकार है-उद्वेलनाके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म करनेवाला कोई एक जीव सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ और इसने अन्तरकरणकी अन्तिम फालिके साथ उद्वेलनाकी अन्तिम फालिको अन्य प्रकृतिमें खिपाया। फिर वहाँ से लेकर मिथ्यात्वकी स्थितिमें एक समय कम आवलिप्रमाण कालको बिताकर सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मका आदि किया और इस प्रकार उसका अन्तर कर दिया। फिर क्रमसे मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको गलाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रह कर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः अन्तर्मुहूतेकालके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की। पुनः अधःकरण और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्वका क्षय किया। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका पररूपसे संक्रमण करके यथाक्रमसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा उदयावलिके निषेकोंको गलाते हुए जब एक निषेककी स्थिति दो समय कालप्रमाण शेष रह जाती है तब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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