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________________ अथधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिहिती ३ ९५२८ पुरिस० मिच्छत्त- बारसक० पुरिस० ज० जहण्णुक्क० एयस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० जहण्णुक्क ० एगसम । अज० ज ० एस ०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । ऋणोक० ज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सहिदी । ता० जह० जहण्णु० एयस० । अज० जह० अंतोमु० एयसमत्रो वा उक्क० सगहिदी । ३०६ 1 दूसरे समय में मरकर देव हो गया उसके उक्त सत्र प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । स्त्रीवेद के साथ निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है । अतः यहाँ उत्कृष्ट स्थिति से यही काल लेना चाहिये । जो स्त्रीवेदी जीव दर्शनमोहनीय की नृपणा कर रहा है उसके अपनी अपनी क्षपणा के अन्तिम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मि - ध्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है अतः इसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । इसी प्रकार विसंयाजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय जानना । जो द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणी से उतर कर एक समय तक स्त्रीवेदके साथ रहा और दूसरे समय में देव हो गया उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । एक जीव स्त्रावेदके रहते हुए निरन्तर वेदकसम्यक्त्वके साथ कुछ कम पचवन पल्य काल तक रह सकता है। यदि कोई जीव पचवन पल्यकी आयुके साथ देवी हो गया और वहाँ उसने वेदक, सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया तो उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य पाया जाता है । जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त के भीतर सम्यग्दृष्टि हो कर पुनः अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर लेता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तं पाया जाता है । तथा जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला स्त्रीवेदी जीव जीवनके अन्तिम समय में सासादनको प्राप्त होता है और दूसरे समय में मर कर अन्यवेदी हो जाता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिकी उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिमा है यह स्पष्ट ही है । ५२८. पुरुषवेदवालों में मिध्यात्व, बारह कषाय और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । विशेषार्थ - पुरुषवेदवाले जीवोंके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्व की क्षपणा के अन्तिम समयमें, आठ कषायोंकी जघन्य स्थिति आठ कषायोंकी क्षपणा के अन्तिम समय में तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति सवेदभाग के अन्तिम समयमें होती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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