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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो ३०५ $ ५२७. वेदाणुवादेण इत्थवेदसु मिच्छत्त- अडकसाय- द्वणोकसाय- चत्तारिसंजलण० जह० जहण्णुक्क० एयस० । अज० ज० एस ०, उक्क० सगहिदी | एवं ण स० । णवरि जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । सम्मत्त०० - सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस०, पणवण्णपलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अणताणु ० चउक्क० ज० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० अंतोमु० एयसमयो वा, उक्क० सहिदी । उक्क ० इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पर्याप्त योग होनेके पूर्ववर्ती समयमें होगा । आहारककाययोगमें वैक्रियिक काययोगके समान सब प्रकृतियों की स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । मूलमें अकषाय आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । कार्मण काययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है अतः इसमें मिध्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जाता है। जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव कारण काययोगके रहते हुए क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके काम काययोग में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है । तथा जिसने कार्मणकाययोगमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है उसके उक्त प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है । सात नोकषायों की जघन्य स्थिति कार्मणकाययोगके दूसरे समय में प्राप्त होती है अतः इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा कार्मण काययोग में उक्त नौ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कार्मणकाययोग जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा बन जाता है। मोहनीयकी सत्तावाले जो जीव कार्मणकाययोगी होते हैं वे ही अनाहारक होते हैं, अतः अनाहार कोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कार्मणकाययोगियोंके समान कहा । आठ कषाय, आठ $ ५२७. वेदमार्गणा के अनुवादसे स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यात्व, नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार नपुंसक - वेदका जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मुहूर्त है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । 'विशेषार्थ-स्त्रीवेदवाले जीवोंके मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्वकी क्षपणा अन्तिम समय में और आठ कषायोंकी जघन्य स्थिति आठ कषायोंकी क्षपणा के अन्तिम समयमें तथा आठ नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थिति सवेदभाग के अन्तिम समयमें प्राप्त होती है अतः इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । स्त्रीवेदी जीव जब नपुंसक वेदके अन्तिम काण्डका पतन करता है तब उसके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति होती है पर इसका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। जो जीव उपशमश्रेणी से उतर कर एक समय तक स्त्रीवेदके उदय के साथ रहा और ३६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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