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________________ ३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ जहण्णडिदि० अजहण्णहिदि० च जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया। सम्मत्तसम्मामि०-सत्तणोक० ज० जहण्णुक्क० एगसमो। अज० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । एवमणाहारि० । काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना । विशेषार्थ-पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय तथा सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय योग परिवर्तनकी अपेक्षा कहा है । शेष कथन सुगम है। औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है । अतः औदारिक काययोगमें सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण प्रात होता है। शेष कथन मनोयोगके समान जानना । जो देव दो बार उपशम श्रेणी पर चढ़कर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न होनेवाले भवके अन्तिम समयमें वैक्रियिककाययोगी होता है उसीके वैक्रियिक काययोगमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है अतः वैक्रियिककाययोगमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा इसके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनासे ही प्राप्त होगी क्योंकि जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि देव या नारकियोंमें उत्पन्न होता है उसके वैक्रियिक मिश्रकाययोगके कालमें ही कृतकृत्यवेदकका काल समाप्त हो जाता है । काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुगदल परिवर्तन प्रमाण है अतः इसमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । काययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल एकेन्द्रियों के समान कहा इसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है उसी प्रकार काययोगमें भी जानना। औदारिकमिश्रकाययोगमें सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय न कहकर अन्तमुहूर्त बतलाया है उसका कारण यह है कि यह जघन्य स्थिति उस जीवके होती है जो कोई बादर एकोन्द्रय जघन्य स्थिति सत्त्वके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यों में उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त काल तक अपने अपने प्रतिपक्ष बन्धक कालमें रहकर प्रतिपक्ष बन्धक कालके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके औदारिकमिश्रमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है। औदारिकमिश्रका काल प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्ध कालसे बहुत अधिक है। जघन्य स्थितिसे पूर्व व पश्चात् काल अन्तमुहूर्त होता है अतः सात नोकषायों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति वैक्रियिक मिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें सर्वार्थसिद्धि में सम्भव है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालके अन्तिम समयमें प्रथम नरकमें सम्भव है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति किसी भी समय सम्भव है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जिस वैक्रियिकमिश्रकाययोगीके दूसरे समयमें सम्यक्व या सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। शेष कथन सुगम है । आहारकमिश्रकाययोगमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी न तो उद्वेलना होती है और न क्षपणा, अतः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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