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________________ गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियपरिमाणं ३६१ चउक्क० ज० अज० केत्ति० १ असंखेज्जा । सत्तमाए उक्कभंगो । ६०६. तिरिक्खगइ० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ. ज. अज० के० ? अणंता । सम्मत्त० ज० के० १ संखेजा। अज० के० १ असंखेज्जा । सम्मामि० ज० अज० के० १ असंखेज्जा । अणंताणु०चउक्क०-सत्तणोक० ज० के० ? असंखेजा। अज० के ? अणंता । एवं किण्ह०-णील०-काउ० । णवरि किण्ह-णील० सम्म० सम्मामि भंगो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्जा-पंचिं०तिरि०जोणिणी० पढमपुढविभंगो । णवरिपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिभंगो। पंचिं०तिरि०अपज्ज० एवं चेव । एवं मणुसअपज्जा-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-चत्तारिकाय-[सव्ववणप्फदिपत्तेय०-] तसअपज्जः । ___ ६१०. मणुस० सव्वपयडीणं ज० केत्ति ? संखेज्जा । अज० के० ? असंखेजा। णवरि सम्मामि० जह० असंखे। मणुसपज्ज०-मणुसिणी० सव्वप० जह० अज० संखेज्जा। __६६११. देव० णारयभंगो । भवण०-वाण एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामि०भंगो । जोदिसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि जाव अवराइद० मिच्छत्त-०बारसक०असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सातवीं पृथिवा में उत्कृष्टके समान भंग है। ६६०६. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त है। इसी प्रकार कृष्ण. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यावालोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । पंचेन्द्रि तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती जीवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती जीवोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी चार स्थावरकाय, सभी वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और त्रस अपर्याप्तक जीवोंमें जानना चाहिये । ६६१०. मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। ६६११. देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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