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________________ जयपषलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहसी ३ .. ६६०७. जहण्णए पयदं। दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य। भोघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० जह० केत्ति ? संखेज्जा । अज० केत्ति० १ अणंता । सम्मत्त० जह० केत्ति० ? संखेज्जा । अजह० केत्ति० १ असंखेजा। सम्मामि० जह० अजह० के० ? असंखेजा। अणंताणु० चउक्क० जह० के० १ असंखेजा। अजह० के० ? अणंता । एवं कायजोगि०-ओरालि०-णस०.चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारए ति। .. ६०८. आदेसेस णेरइएमु मिच्छत्त-सम्मामि०-सोलसक..णवणोक० जह. अजह० के० १ असंखेज्जा । सम्मत्त० जह० केत्ति ? संखेज्जा । अजह० के० ? असंखेंज्जा । एवं पढमाए । विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० जह केत्ति ? संखेज्जा । अजह० केत्ति०१ असंखेज्जा । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० मार्गणाएं अपवाद हैं । इसका कारण यह है कि मनुष्यों में पर्याप्त मनुष्योंके ही उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । और उनकी संख्या संख्यात है, अतः सामान्यसे मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव संख्यात ही होंगे और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात । आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें भी यही व्यबस्था जानना चाहिये, क्यों कि इनके अपनी अपनी पर्यायके प्राप्त होनेके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है पर इनमें मनुष्यगतिसे ही जीव उत्पन्न होते हैं परन्तु अच्युत स्वर्गतक सम्यग्दृष्टि तिथंच भी उत्पन्न होते हैं और ऐसे जीवोंकी संख्या संख्यात है, अतः उक्त मार्गणाओंमें भी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है। अब रही संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं सो उनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात होगा यह स्पष्ट ही है। अनन्त, असंख्यात और संख्यात संख्यावाली मार्गणाओंका मूलमें उल्लेख किया ही है। इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६६०७. अब जघन्य परिमाणानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६०८. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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