SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२४. अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ५४६. पंचि०तिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० - सोलसक०-णवणोक० उक्क० अणुक० णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज. अणुदिसादि जाव सव्वह०सव्वएई दिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-पंचकाय० -तसअपज्ज०-ओरालियमिस्सवेउव्वियमिस्स०-आहार०-आहारमिस्स-कम्मइय० - अवगद० - अकसा-ग्राभिणि.. सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुमसांप०-जहाक्खाद०संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम-सासण-सम्मामि०[असण्णि-] अणाहारि त्ति । णवरि एइंदिय-बादरेइंदियपज्ज -पुढ वि०-आउ० तेसिं बादरपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेय०-तप्पज्जत्त-ओरालियमिस्स० - वेउब्धियमिस्स-असण्णि. कुछ कम तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है। भोगभूमिमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती जीवोंका जो उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य बतलाया है उसमें भोगभूमिका काल भी सम्मिलित है अतः इसमेंसे तीन पल्य कम कर देने पर जो पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण काल शेष बचता है वह उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल जानना चाहिये। यहां किस तिर्यचके पूर्वकोटि पृथक्त्वसे कितनी पूर्वकोटियोंका ग्रहण करना चाहिये इसका कथन अन्यत्र किया है, इसलिये वहांसे जान लेना चाहिये । उक्त तीन प्रकारके तिर्यचोंमें जिस तिर्यंचने अपनी पर्यायके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की अनन्तर वह अपनी अपनी कायस्थितिके उत्कृष्ट कालतक मिथ्यादृष्टि रहा पर अन्तमें उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर ली उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तरका कथन जिस प्रकार सामान्य तियचोंके कर आये हैं उसी प्रकार इन तीन प्रकारके तियचोंके कर लेना चाहिये। इसका प्रमाण कुछ कम तीन पल्य है। शेष कथन ओघके समान जानना चाहिए । समान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोंके भी उक्त सीन प्रकारके तिर्यंचोंके समान अम्तर काल जानना चाहिये । किन्तु पूर्वकोटियां जिसकी जितनी हों उतनी कहनी चाहिये । ६५४६. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियकमिश्र आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, बादर . एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy