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________________ गा० २२ ] डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं ३२५ णवणोक० उक्क० ज० एगसमश्र, उक्क० प्रावलिया दुसमणा । अणु० जह० ० उक्क० आवलिया समयूरणा 1 एगस ०, ५४७. देवदि० मिच्छत्त बारसक० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो ० सादिरेयाणि । अणुक्क० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त० - सम्मामि० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारस साग० सादिरेयाणि । अणुक्क० ज० एस ०, उक्क० एक्कतीस सागरो० देसूणाणि । ताणु० चउक्क० उक्क० मिच्छत्तभंगो | अणुक्क० ज० एस ०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देसूणाणि । णवणोक० उक्क० ज० एयस०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० श्रघं । भवणादि जाव सहस्सार ति एवं चैव । णवरि सगहिदी देणा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छत्त बारसक० णवणोक० उक्कस्सारशुक्क० णत्थि अंतरं खिरंतरं । सम्मत्तअसंज्ञी जीवोंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल दो समय कम आवलिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कम आवलिप्रमाण है । 1 विशेषार्थ — पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त से लेकर मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं पाया जाता। इसका कारण यह है कि इनके प्रथम समय में उत्कृष्ट स्थिति होती है अतः उस उस पर्यायके रहते हुए दो बार उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती । किन्तु एकेन्द्रिय आदि मूलमें गिनाई हुई कुछ ऐसी मर्गणाएं हैं जिनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर सम्भव । यद्यपि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके विषय में सामान्य नियम तो यह है कि जिस कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध रुक जाता है उसका यदि पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो तो अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् ही हो सकता है परन्तु कषायोंको बदल बदल कर उनका एक या एकसमयसे अधिक काल के अन्तरसे भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है । अब यदि किसी जीवने इस प्रकार कषायकी उत्कृष्ट स्थित बांधी और वह एकेन्द्रियादिक उक्त मार्गणाओं में से किसी एक मार्गणा में उत्पन्न हुआ तो उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम एक वलिका प्रमाण बन जाता है। और इसके विपरीत अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम आवलि प्रमाण भी बन जाता है । ५४७. देवगतिमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धी agreat उत्कृष्ट स्थिति के अन्तरका भंग मिथ्यात्व के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघ के समान है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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