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________________ ३२६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क सगहिदी देसूणा । अणंताणु० चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूरणा । ५४८. पंचिं०-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज० मिच्छत्त०-बारसक० उक्क० अंतरं ज० अंतोम०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० ज० अंतोमु० । उक्क० सगहिदी देसणा । अणक्क एवं चेव । णवरि जह एगस० । अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणक्क० ज० एगसमो, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा। अणक्क० ओघं । एवं पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति। आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है किन्तु पूर्वोक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका काल निरन्तर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है।। विशेषार्थ देवोंमें सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके ही मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध और संक्रमण सम्भव है, अतः स मान्यसे देवोंमें मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा। तथा नौ ग्रैवेयक तकके देव मिथ्यात्वमें जा सकते हैं और सम्यग्दृष्टि भी हो सकते हैं अतः सामान्य देवोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा। शेष कथन ओघके समान है। तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंमें अपनी अपनी स्थितिका विचार करके इसी प्रकार अन्तर काल जानना चाहिये । आनतसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल तो होता ही नहीं, क्योंकि इनके पर्यायके प्रथम समयमें ही उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। हाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उद्वेलनाकी अपेक्षा और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका विसंयोजनाकी अपेक्षा अन्तरकाल सम्भव है जो मूलमें बतलाया ही है। ६५४८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्सिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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