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गा० २२
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं ६५४९. पंचमण.-पंचवचि० उक्क० णत्थि अंतरं । णवरि पंचणोक० [ज.] एयसमा, उक्क० अंतोमुहुचे । चदुणोक० [उक्क०] ज० एगस०, उक्क० आवलिया दुसमऊणा । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० आवलि० असंखे०भागो एगावलिया वा । एवं कायजोगि०-ओरालिय०-वेउव्विय० चत्तारिकसाए त्ति । है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ कोई भी जीव पंचन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और त्रसपर्याप्त जीवोंकी कायस्थिति प्रमाण काल तक मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके साथ रह सकता है पर यहाँ इनकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल बतलाना है, अतः इनके प्रारम्भ और अन्त में उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करावे और इस प्रकार उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे जो उक्त जीवोंकी कुछ कम कायस्थितिप्रमाण होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतने काल तक लगातार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व सम्यक्त्व प्राप्तिकी अपेक्षा बन सकता है, अन्यथा मध्यमें इनकी उद्वेलना भी हो जायगी। जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व प्राप्त करे तो वह अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना अधिक से अधिक कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर तक रह सकता है, अतः उक्त जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर कहा । शेष कथन ओघके समान है। पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति क्रमशः सौ सागर पृथक्त्व, दो हजार सागर और सौ सागर पृथक्त्व है, अतः इनमें भी उक्त क्रमसे अन्तर काल बन जाता है।
६५४६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम एक वलि है। तथा सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार नोकषायोंके सिवा शेषका अन्तर्मुहूर्त तथा चार नोकषायोंका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाग अथवा एक आवलिप्रमाण है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और चारों कषायवाले जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंमें नौ नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। इसका कारण यह है कि इन योगोंका काल थोड़ा है, अतः इनमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है। किन्तु सोलह कषायोंका बदल बदल कर अन्तरसे भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, अतः उनके संक्रमणकी अपेक्षासे नौ नोकषायोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर बन जाता है जो मूलमें बतलाया ही है। इसी प्रकार यहां शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका भी अन्तर घटित कर लेना चाहिये । मूलमें काययोगी आदि जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी यथायोग्य जानना चाहिये। यद्यपि काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है और औदारिक काययोगका काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण है पर यह काल एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक जीवोंके ही प्राप्त होता है, अतः इनमें भी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल
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