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________________ ___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सहिदीअंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह• अंतोमुहु, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० अंतरं के० ? जह० एगसमो, उक्क. अंतोमुहुत्तं । एवं तिरिक्ख०कायजोगि० .णवंस-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-भवसिद्धि-अभवसिद्धि-- मिच्छादिहि त्ति वत्तव्यं । ____६८४. आदेसेण गेरइएसु मोह० उक्क० अंतरं जह• अंतोमु, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । अणुकस्स० ओघमंगो। पढमादि जाव सत्तमि त्ति मोह० उक्क० अंतरं केवचिरं० ? ज० अंतोमुहुर्ता, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा । अणुक० श्रोघभंगो। प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतरकाल अनंतकाल प्रमाण है। जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अंतरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंतर्मुहूर्त है । इसी प्रकार तिर्यंच, काययोगी, नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अञ्चक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। विशेषार्थ ऐसा नियम है कि जिसने कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह यदि अनुकृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगे तो कमसे कम अन्तमुहूर्त कालके पहले उस जीवमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध करनेकी योग्यता नहीं आ सकती अतः मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति बांधी अनन्तर वह अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगा और मर कर एकेन्द्रियादिमें उत्पन्न होकर अनन्त काल तक वहां घूमता रहा। पुनः एकेन्द्रियोंमें अनन्त कालके पूरे हो जाने पर वह संज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ और पर्याप्त होनेके पश्चात् उसने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया। इस प्रकार इस जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है अतः ओघसे उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा। ऐसा नियम है कि उत्कृष्ट स्थितिका बंध एक समय तक भी होता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अंतर एक समय प्राप्त हो जाता है । तथा उत्कृष्ट स्थितिका निरन्तर बन्ध अंतमुहूर्त काल तक होता है अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है । मूलमें सामान्य तियेच आदि और जितनी मार्गणाए गिनाई हैं उनमें ही यह ओघ प्ररूपणा घटित होती है, अतः इनके कथनको अोधके समान कहा। ८४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अंतरकाल ओघके समान है। पहले नरकसे लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक नरकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अंतर काल कितना है ? जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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