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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६१४८. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो—ओघेण आदेसेण य । ओघेण० मोह० जह० ज० एगसमओ, उक्क संखेज्जा सामया । अज० सवद्धा । एवं विदियादि जाव छहि त्ति मणुसतिय-जोदिसियादि जाव सव्वह०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०--तिण्णिवेद०चत्तारिक०-आभिणि-सुद०-ओहि०--मणपज्ज-विहंग०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंसण-तिण्णिले०-भवसि०-सम्मादि०-वेदय०खइय०-सण्णि०-आहारि• त्ति । १४६. आदेसेण णेरइयेसु मोह० जह० ज० एगस०,उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० केव० ? सव्वद्धा । एवं पढमाए। एवं सव्वचिंदियतिरिक्ख-देव०भवण०-वाण०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-तसअपज्ज० वत्तव्वं । सत्तमाए० मोह. काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना। नाना जीवोंकी अपेक्षा भी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा। यदि मनुष्य उपशमश्रेणी पर निरन्तर चढ़े तो संख्यात समय तक ही चढ़ेंगे और उन सबके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्त हो होगा अतः अपगतवेद, अकषाय, सूक्ष्मसम्परायसंयम और यथाख्यातसंयममें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा । सासादनसम्यक्त्वका जघन्यकाल एक समय है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय कहा । शेष कथन सुगम है । इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६१४८. अब जघन्य कालानुगमका प्रकरण है। उसकी उपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, विभंगज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । १४६. आदेश निर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? सर्वदा है । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेंच, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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