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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए भंगविचओ ३४६ च । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । णवरि मणुसअपज्ज० उक्कस्सहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया एगो जीवो अविहत्तिो, सिया एगो जीवो विहत्तिो । एवमेदे चत्तारि एगसंजोगभंगा। दुसंजोगभंगा वि एत्तिया चेव । सव्वभंगसमासो अझ ८ । अणुक्कस्सस्स वि एवं चेव परूवेदव्वं । एवं वेउव्वियमिस्स० आहार-आहारमिस्स० अवगद अकसा०-सुहुम-जहाक्खाद०उवसम०-सासण० सम्मामि० ।। ___ एवमुक्कस्सओ णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । * जहएणए भंगविचए पयदं । लेजाना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंम उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कदाचित सब जीव अविभक्तिवाले, कदाचित् सब जाव विभाक्तवाले, कदाचित एक जीव अविभक्तिवाला, कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला इस प्रकार ये एक संयोगी चार भंग होते हैं। तथा द्विसंयोगी भंग भी इतने ही होते हैं । इस प्रकार सब भंगोंका जोड़ आठ होता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। इसी प्रकार वैक्रियिक्रमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचयानुगममें दो बातें ज्ञातव्य हैं। -थम यह कि एक जीवमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति एक साथ नहीं पाई जाती। और दूसरी यह कि अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नाना जीव तो सर्वदा रहते है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला कदाचित् एक भी जीव. नहीं होता, कदाचित् एक होता है और कदाचित् अनेक होते हैं। इस प्रकार इन दो विशेषताओंको ध्यानमें रखकर यदि एक बार उत्कृष्ट स्थितिकी मुख्यतासे और दूसरी बार अनुत्कृष्ठ स्थितिकी मुख्यतासे भंग प्राप्त किये जाते हैं तो वे छह होते हैं। यथा-कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले नहीं हैं कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला है, कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले और बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले हैं, कदाचितू सब जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाला है तथा कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले हैं। यह क्रम मोहनीयकी मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा बन जाता है। आदेशकी अपेक्षा सब मार्गणाओंमें भी यही क्रम जानना चाहिये। किन्तु मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी. आहारकमिश्रकाययोगी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सास सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन आठ सान्तर मार्गणाओंमें तथा मोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अन्तरको प्राप्त हुई अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसंयत इन तीन मार्गणाओंमें एक और अनेक जीवोंके सत्त्वासत्त्वका आश्रय लेकर उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग होते हैं । जो मूलमें गिनाये ही हैं। ___ इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। * अब जघन्य भंगविचयका प्रकरण है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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