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________________ ६६ __जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े [हिदिविहत्ती ३ ११५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मोह० जह० अजह० उक्कस्सभंगो। एवं कायजोगि० ओरालि०-णवूस०-चत्तारिकअचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति। . ६ ११६. आदेसेण णिरयगदीए मोह० जह० अजह० उक्कस्सभंगो । एवं सत्तपुढवीसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वतस०बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज०-बादरतेउपज बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्त यपज्ज-पंचमण०-पंचवचि० --वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-आहार०-आहारमिस्स०-इत्थि०पुरिस०-अवगद०-अकसा०-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहिल-मणपज्ज०-संजद०सामाइय०-छेदो०-परिहार०-मुहुम-जहाक्खाद-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदसतिण्णले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । णवरि वादरवाउपज्ज० जह० अजह० लोगस्स संखे० भागे । ६११७. तिरिक्व० मोह० जह० अजह ० के० खेत्त ? सव्वलोए । एवं सव्वएइंदिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढविपजत्तापज्जत्त-आउ०-बादर ६११५. अब जघन्य स्थितिविभक्ति क्षेत्रानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा क्षेत्रका कथन उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये । $ ११६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा क्षेत्र उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी स, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त,बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त,पांचों मनोयोगी,पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी,वैक्रियिकमिश्रकाययोगी,आहारककाययोगी,आहारकमिश्रकाययोगी,स्त्रीवेदी पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी,विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत,सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यर्थाख्यातसंयत,संयतासंयत, चक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तक जीवोंमें जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अजघन्य स्थितिविभक्ति वाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। ___ ११७. तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं । सब लोकमें रहते हैं । इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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