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________________ गा• २२] द्विदिविहत्तीए खेत्त आउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमआउ-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-[बादरतेउ०-]बादरतेउअपज्ज०सुहुमतेउ०-पज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहुभवाउ०--पज्जत्ता पज्जत्त-बादरवणप्फदि० पत्तेय-तेसिमपज्ज०-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद० ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-तिण्णिलेस्सा-अभवसि०-मिच्छादि०असण्णि-अणाहारि त्ति । ११८ एत्थ मूलुचारणापाढो-तिरिक्व० मोह० जह० लोग० संखे०भागे। अज सव्वलोगे । एदस्साहिप्पाओ सत्थाणविसुद्धबादरेइंदियपज्जत्तएसु चेव जहण्णसामित्तं जावमिदि । एवमेइंदिय-बादरेइंदियपजत्तापजत्त-वाउ-बादरवाउ०-तदपज्जत्ताणं च वत्तव्वं । एदम्मि अहिप्पाए चत्तारिकाय-तेसिं बादर-तदपज्जत्ताणं जह० लोग० असंखे० भागे । अज० सव्वलोगे। मदि-सुदअण्णाण०-असंजद० -तिष्णिले०-अभव० - मिच्छादिहि-असण्णीणं बादरवाउभंगो । एतदणुसारेण च पोसणं णेदव्वमिदि एदमेत्थ पहाणं । एवं खेत्ताणुगमो समत्तो।। अपर्याप्त,जलकायिक,बादरजलकायिक बादरजलकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक,बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । ११८ यहां पर मूलोचारणाका पाठ है कि तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं। इसका यह अभिप्राय है कि स्वस्थान विशुद्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें ही जहां तक जघन्य स्वामित्व है वहां तक उक्त क्षेत्र प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि तिर्यंचोंमें जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कोंके ही प्राप्त होती है और उनका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागसे अधिक नहीं, इसलिये सामान्य तिर्यंचोंमें जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण बतलाया है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । तथा इस अभिप्रायानुसार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, उनके बादर और उनके बादर अपर्याप्त जीवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं, तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं। मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके बादर वायुकायिक जीवोंके समान क्षेत्र है। तथा इसीके अनुसार स्पर्शनका कथन करना चाहिये । इस प्रकार यही विवक्षा यहाँ पर प्रधान है। विशेषार्थ ओबसे जघन्य स्थितियाले जीव संख्यात हैं और मार्गणाओंकी अपेक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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