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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
११६. पोसणाणुगमो दुविहो – जहण्णओ उक्कस्सओ च । उक्कस्से पयदं ।
दुविहो
सो - ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेण मोह० उक्क० के० खेचं पोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो अह-तेरहचोदस भागा वा देसूणा । अणुक० खेत्तभंगो | एवं कायजोगि० चत्तारिकसाय-मदिअण्णाण-सुदअण्णाण असंजद ० - अचक्खु०भव० - अभव०-मिच्छादि ० - हारिति ।
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किसी में अनन्त हैं, किसीमें असंख्यात और किसीमें संख्यात हैं । इनमें से जिन मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिवाले संख्यात जीव हैं उनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । जिन मार्गाओं में असंख्यात हैं उनमें से कुछ मार्गणाएं तो ऐसी हैं जिनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । जैसे सातों नरकोंके नारकी आदि । तथा बादरवायुकायिक पर्याप्त यह मार्गणा ऐसी है जिसकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । इनके अतिरिक्त जो अनन्त संख्यावाली और असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएं शेष रहती हैं उनकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीवों का वर्तमान क्षेत्र सब लोक प्राप्त होता है । जैसे सामान्य तिर्यंच, एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक आदि । पर इस विषय में मूलोच्चारणा में जो पाठ पाया जाता है उसका यह अभिप्राय है कि मूलमें असंख्यात संख्यावाली और अनन्त संख्यावाली जिन मार्गणाओंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है उनमें से पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय, उनके बादर तथा बादर अपर्याप्त जघन्य स्थितिवाले जीवों का क्षेत्र तो लोक असंख्यातवें भागप्रमाण ही है और इन्हें छोड़कर शेष सब जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोक संख्यातवें भागप्रमाण है । सो वीरसेन स्वामीने इस मतभेदका यह कारण बतलाया है कि ऊपर जो सब लोक क्षेत्र कहा है वह मारणान्तिकसमुद्धात आदिकी अपेक्षासे कहा है और मूलोच्चारण में जो कुछका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछका लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है वह स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षासे कहा है, अतः दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है । फिर भी वीरसेन स्वामी इन दोनोंमेंसे मूलोच्चारणा के अभिप्रायको प्रधान मानते हैं और उसके अनुसार स्पर्शनके कथन करने की सूचना भी करते हैं । अब रहा ओघ और आदेश से जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सो ओघ या आदेशसे जिसका जितना क्षेत्र बतलाया है, अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी उसका उतना ही क्षेत्र जानना चाहिये। क्योंकि सर्वत्र यद्यपि जघन्य स्थितिवाले जीव कम हो जाते हैं फिर भी इससे अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा उनके क्षेत्र में न्यूनता नहीं आती ।
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इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ ।
$ ११६. स्पर्शानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्ट स्पर्शनानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमें से ओघ निर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहां मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो लोकके असंख्यात वें भाग प्रमाण
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