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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ $ १५८. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० ज० एगसमओ, उक्क० छमासा । अज० पत्थि अंतरं । एवं मणुस०मणुसपज्जा-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि० ओरालि०-लोभकसाय-आभिणि -सुद०-अोहि०-संजद-सामाइय-छेदो०-चक्खु०-अचक्ख-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खइय-सण्णि-आहारि ति । णवरि ओहिणाण. वासपुधत्त। $ १५६. आदेसेण णेरइएसु जह० अज० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो। एवं सत्तपुढवि०-सव्वांचिंदियतिरिक्ख-देव-भवणादि जाव सव्वह०-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात है, अतः इन मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल उक्तरमाण प्राप्त होता है। यहाँ पहले जो उपशमश्रेणीका अन्तरकाल कहा उससे मोहसत्कर्मवाले अकषायी और यथाख्यातसंयतोंका अन्तरकाल लेना चाहिए। यहाँ अथवा कहकर कुछ मार्गणाओंके अन्तरकालमें कुछ फरक बतलाया है जो मूल में ही दर्ज है। अकषायी, यथाख्यातसंयत, अपगतवेदी और सूक्ष्मसांपरायिक संयतमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीव उपशमश्रेणीमें ही होते हैं और उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है अतः अथवा कहकर इनका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व कहा गया है। परन्तु कुछ आचार्यो का मत यह भी रहा है कि सभी उपशम श्रेणीवालोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती बहुत कम जीवोंके होती है। अतः उनके मतानुसार अकषायी आदि में उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान अंगुलका असंख्यातवां भाग भी कहा है जो संभवतः वीरसेन स्वामीको भी इष्ट था। तथा उन्होंने अथवा कहकर दूसरे मतका भी उल्लेखकर दिया है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें भी मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तरके विषयमें मतभेद जान लेना चाहिये। यह अन्तर मूलमें दिया ही है । इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१५८. अब जघन्य अन्तरानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदशनी, शक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञो और आहारकोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। ६ १५६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके अन्तरकालके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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