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________________ गा० २२ ]. हिदिविहत्तीए अंतरं अपज्ज०-तसअपज्ज०-चत्तारिकायबादरपज्जत्त-[ बादरवणप्फ०पत्तेयपज०-वेउव्वियकायजोगि-]विहंग०- परिहार०-संजदासंजद-तेउ०--पम्म०-वेदयसम्मादिहि त्ति । $ १६०. तिरिक्व०मोह० जह० अजह० णत्थि अंतरं । एवं सव्वएइंदिय-चत्तारिकाय-तेसिं बादरअपज्ज०-सुहुम०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्त य०-अपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद०-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिम्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-तिण्णिलेस्सि०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णि०-अणाहारि त्ति । . $ १६१. मणुसिणीसु मोह० ज० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्त । अज० पत्थि अंतरं । एवं मणपज्ज। ओहिदंस० ओहिणाणिभंगो । मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। वेउव्वियमिस्स० उक्कस्सभंगो । आहार-आहारमिस्स० उक्कस्सभंगो। १६२. इत्थि०-णवंस० ज० ज० एगस०, उक्क० वासधत् । परिस० जह० जह० एगसमओ, उक्क. वासं सादिरेयं । अज० तिण्हं पि पत्थि अंतरं । सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय बादर पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। ' ६१६०. तिथंचोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, चारों स्थावरकाय, चारों स्थावरकाय बादर, चारों स्थावरकाय बादर अपर्याप्त, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सामान्य वनस्पति, निगोद, वनस्पतिकायिक बादर, वनस्पतिकायि बादर पर्याप्त, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ६१६१ मनुष्यिनयोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके जानना चाहिये। अवधिदर्शनवाले जीवोंके अवधिज्ञानवाले जीवों के समान अन्तरकाल है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें इनके उत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है। तथा आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है । १६२. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। पुरुषवेदी जीवोंमें जघन्य स्थिति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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