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________________ wwwanmawaamaananmanamaARANA गी० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्तं २५३ माणे जहा इत्थिवेदोदयखवगस्से त्ति परूविदं तहा पुरिसवेदोदयक्रववगस्से त्ति किण्ण परूविदं ? ण, अवगदवेदकालब्भतरे दुसमऊणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण द्विदजहण्णहिदिसामियस्स सवेदत्तविरोहादो। * णवुसयवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ६४४४. सुगमं । * चरिमसमयणदुंसयवेदोदयक्खवयस्स $ ४४५. कुदो ? चरिमसमयणQसयवेदस्स गालिददचरिमादिसयलगुणसेढिणिसेयस्स सवेदियदचरिमसमए इत्थिवेदचरिमफालीए सह परसरूवेण संकामिदणqसयवेदविदियहिदिसयलणिसेयस्स एगुदयगोवुच्छुवलंभादो । * छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तो कस्स ? ४४६. सुगमं०। * खवयस्स चरिमे हिदिखडए वट्टमाणस्स शंका-स्त्रीवेदका जघन्य स्वामित्व कहते समय जिस प्रकार स्त्रीवेदके उदयको प्राप्त क्षपकको उसका स्वामी बतलाया है उसी प्रकार पुरुषवेदके उदयको प्राप्त क्षपकको पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं कहा ? समाधान-नहीं, क्योंकि अपगतवेद काल के भीतर दो समय कम दो आवली प्रमाण काल जाकर जो पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी विद्यमान है उसे सवेद कहनेमें विरोध आता है। * नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४४४. यह सूत्र सुगम है। ॐ तपक जीवके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ६४.५. शंका-क्षपक जीवके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति विभक्ति क्यों होती है ? समाधान-जिसने नपुंसकवेद सम्बन्धी द्विचरम आदि सम्पूर्ण गुणश्रेणी के निषेकोंको गला दिया है और जिसने सवेद भागके द्विचरम समयमें स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिके साथ द्वितीय स्थितिमें स्थित नपुंसकवेदके समस्त निषेकोंका पररूपसे संक्रमण कर दिया है उसके अन्तिम समयमें एक उदयरूप गोपुच्छ पाया जाता है, अतः नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। * छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है । ६४४६. यह सूत्र सुगम है। * छह नोकषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान तपक जीवके उनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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