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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ४४७. कुदो ? तत्थ संखेज्जवाससहस्समेत्तचरिमफालिहिदीए उवलंभादो । ४४८ एवं मणुस०-मणुसपज्ज -पंचिंदिय०-पंचि०पज्ज-तस-तसपज्ज०पंचमण-पंचवचि० कायजोगि० ओरालिय०-लोभकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-सुकले०भवसि-आहारए त्ति । णवरि मणुसपज्ज. इत्थिवेद० जण्णहिदिविहत्ती खवगस्स चरिमहिदिखंडगे वट्टमाणस्स । * णिरयगईए ऐरइएसु सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स । ४४६. सुगमं० । * चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स। $ ४५०. कुदो ! मणुस्समिच्छाइहिस्स तिव्वारंभपरिणामेहि णिरयगईए सह ६ ४४७.शंका-अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान क्षपक जीवके छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ? समाधान-क्योंकि वहाँ पर अन्तिम फालिकी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति पाई जाती है। ६४४८. इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य और आहारकके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डकमें विद्यमान क्षपक जीवके होती है। विशेषार्थ-मूलमें जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें ओघके समान प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। किन्तु मनुष्यपर्याप्तके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति एक समय नहीं होती, क्योंकि जो जीव स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपकोणी पर चढ़ता है वही जीव स्त्रीवेदके उदयके अन्तिम समयमें एक सययवाली जघन्य स्थितिका स्वामी होता है। किन्तु जो पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है वह जीव जब स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिको पुरुषवेदरूपसे संक्रमित करता है तब उसके स्त्रीवेदकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य स्थितिविभक्ति होती है इससे कम नहीं और इसलिये मनुष्य पर्याप्तको स्त्रीवेदकी अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिरूप जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी कहा है। * नरकगतिमें नारकियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है । ६४४६. यह सूत्र सुगम है। * जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है उसके दर्शनमोहनीयके क्षय करनेके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। - ४५०.शंका-दर्शन मोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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