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________________ गा० २२ ] द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय अंतरं उक्क • 1 ९७०५. परिहार० मिच्छत्त० सम्मत्त० - सम्मामि० ज० ज० एगस ० वासपुधत्त । अज० णत्थि अंतरं । अताणु० चउक्क० ओघं । सेसपयडि० उक्क०भंगो | सुहुम० तेवीसपयडी० ज० अ० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्त ं । लोभसंजल ० 50 अवगद० भंगो । संजदासंजद० मिच्छत्त-सम्मत्त अनंताणु ० चउक्क० ओधं । सम्मामि० सम्मत्तभंगो । सेसपयडि० उक्क० भंगो । असंजद० तिरिक्खोघ । णवरि मिच्छत्त ० सम्मत्त० ओघभंगो । ९ ७०६, काउ० तिरिक्खोघ । किण्ह० -णील० एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो | तेज ० - पम्म० सम्मामिच्छत्तमोघ । सेसपयडि० संजदासंजदभंगो | अभवसि • छब्बीसपयडी० ओरालियमिस्सभंगो । खइय० एक्कवीसपयडी० श्रघं । ४२३ है पर क्षपक श्रेणीमें इनका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः ओघ में जिनकी जघन्य स्थितिका क्षपकश्रेणी में वर्पपृथक्त्वसे कम अन्तर सम्भव है उनकी जघन्य स्थितिका यहां जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण जानना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानमें भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है । ७०५. परिहारविशुद्धिसंयतों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मसां परायिकसंयतों में तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य और जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । तथा लोभसंज्वलनका भंग अवगतवेदवालोंके समान है । संयतासंयतों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर ओघके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । असंयतों में सामान्य तिर्यंचों के समान भंग जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है । विशेषार्थ — परिहारविशुद्धिसंयममें क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व है, अतः यहां मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक तमय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व कहा । सूक्ष्म सांपरायमें मिथ्यात्व आदि तेईस प्रकृतियोंकी सम्भावना उपशमश्रेणीकी अपेक्षा है और उपशमश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व है, अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व कहा । संयतासंयतों के सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती, अतः यहां सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान कहा । असंयत के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है, अतः यहां मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका भंग ओघके समान कहा । ६ ७०६. कापोतलेश्यावालों में सामान्य तिर्यचों के समान भंग जानना चाहिये । कृष्ण और नील श्यावालों में भी इसीप्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है । पीत और पद्मलेश्यावालों में सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर ओघ समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भंग संयतासंयतों के समान है । अभव्योंम छब्बीस प्रकृतियोंका भंग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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