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________________ ४२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [द्विदिषिहत्ती ३ ७०३. मदि-सुदअण्णा० तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत्त-अणंताणु० एइंदियभंगो । एवं मिच्छादि०-असण्णि त्ति । विहंग० सम्मामिच्छत्तमोघ । सेसपयडीणमुक्कभंगो । णवरि सम्म० सम्मामि० भंगो। ७०४. आभिणि-सुद० ओघ । णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो । एवं संजद०सामाइय-छेदो०-सम्मादिहि ति । ओहिणाणि०-ओहिदंसणी. एवं चेव । णवरि ज. ज० एगस०, उक्क वासपुधत्त । एवं मणपज्ज० । जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनको अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। विशेषार्थ - यद्यपि क्रोध कषायमें सब प्रकृतियोंका कथन ओघके समान कहा है पर ओघमें अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, लोभसंज्यलन और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बतलाया है जो क्रोधमें किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है, क्योंकि क्षपकश्रेणीमें क्रोधका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष पाया जाता है अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्षे कहा । मान, माया और लोभमें भी यह व्यवस्था बन जाती है। किन्तु क्षपकश्रेणीमें लोभका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, अतः लोभमें लोभसंज्वलनका अन्तर ओघके समान ही जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है । .६७०३. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान अन्तर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा भंग एकेन्द्रियोंके समान है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विभंगज्ञानियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। शेष प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्टके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। विशेषार्थ-मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें न तो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होता है और न अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना ही होती है अतः इनमें इन प्रकृतियों के भंगको एकेन्द्रियोंके समान कहा । विभंगज्ञानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होती है अतः इसमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान और सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान बन जाता है । शेष कथन सुगम है। ६७०४. आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानियोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंय यत. छेदोपस्थापनासंयत और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानियोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती, अतः यहां सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान कहा। मूलमें संयत आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उक्तप्रमाण व्यवस्था बन जाती है इसलिये उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें यह व्यवस्था बन तो जाती For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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