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________________ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww २८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६५०८. किण्ह-णील-काउ० तेउपम्मलेस्सासु मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं, अणक्क० जह० एगस० । णवरि किण्हणीलकाउ० मिच्छ० सोलस० अतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी। सुक्कले० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोम० । अणंताणु० एगसमओ वा, उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसः। अणुक्क० ज० एगस०, उक्का सगहिदी। इसमें प्रारम्भ में हुए उपशम सम्यक्त्वके कालको मिला दिया जाता है तो साधिक छयासठ सागर प्राप्त हो जाते हैं और यही सबब है कि अवधिज्ञानी आदि मार्गणाओंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर भी स्वीकार किया है। अवधिदर्शन अवधिज्ञानका अविनाभावी है अतः अवधिदर्शनमें अवधिज्ञानके समान व्यवस्था जानना। तथा सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार जानना। वेदकसम्यक्त्वमें यद्यपि इसी प्रकार जानना पर इसके सम्यक्त्व और बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर होता है क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व तक वेदक सम्यक्त्वका काल पूरा छयासठ सागर है और उक्त प्रकृतियोंका यहां तक सत्त्व पाया जाता है। इससे यह भी तात्पर्य निकल आया कि उक्त प्रकृतियोंको छोड़ कर वेदकसम्यक्त्वमें शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। मनः पर्ययज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है शेष कथन सुगम है। ऊपर संयत आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं इनमें भी इसी प्रकार जानना । यद्यपि सामायिक और छेदोपस्थापनामें काल सन्बन्धी उक्त व्यवस्था बन जाती है पर जो जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर और नौवें गुणस्थानमें एक समय तक रह कर मर जाता है उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें चौबीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। ६५०८. कृष्ण, नील कापोत पीत और पद्म लेश्याओंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उपर्युक्त सभी लेश्याओंमें उपर्युक्त सभी प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनन्तानुबन्धीका एक समय भी है। और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-कृष्णादि पांच लेश्याओंके रहते हुए मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है तथा सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकषायोंमें संक्रमण हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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