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________________ पा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयाड द्विदिकालो २८६ 8 ५०६. खड्य० बारसक०-णवणोक० [उक्क० ] जहण्णुक्क० एगस। अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सासण. सव्वपयडी० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० छावलियाओ । असणगी० एईदियभंगी। सकता है, अतः इनमें मिथ्यात्वादि छब्बोल प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। जो पीत और पद्मलेश्यावाला जोव मर कर तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है यदि वह मरने के पहले उपान्त्य समयमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके अन्तमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है तो उसके पीत और पद्म लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। किन्तु कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं मरनेके पश्चात् भी एक अन्तमुहर्त काल तक बनी रहती हैं, अतः इनमें उक्त प्रतियां की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। तथा पांचों लेश्याओंमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह सुगम है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदक सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके पहले समयमें ही हो सकती है अतः पांचों लेश्याओंमें उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा उद्वेलनाके अन्तिम समयमें जो कृष्णादि लेश्याओं को प्राप्त होते हैं उनके कृष्णादि लेश्याओंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। पर सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कृष्ण और नील लेश्यामें उद्वेलनाकी अपेक्षा और कापोत आदि तीन लेश्याओंमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिये । तथा उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियाँको उत्कृष्ट स्थिति पहले समयमें ही सम्भव है, अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा शुक्ल लेश्याका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है अतः इसमें उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयाजना किया हुआ जो शुक्ललेश्यावाला जाब मिथ्यादृष्टि हो गया और दूसरे सनयम उसको लेश्या बदल गई उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण हाता हे यह स्पष्ट ही है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य भार उत्कृष्ट काल पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। ६५०६. क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल अन्तमुहूतं और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरप्रमाण है। सासादन सम्यग्दष्टयों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलीप्रमाण है। असंज्ञियों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है। विशेषार्थ-क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले समयमें ही बारह कषाय और नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अत: इसमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा क्षायिक सम्यक्त्वका संसारमें जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। सासादन सम्यक्त्वके पहले . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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