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________________ २४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३ ६५१०, आहारिं० मिच्छत्त- सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि । __ एवमुक्कस्सकालाणुगमो समत्तो । * जहण्णहिदिसंतकम्मियकालो। $ ५११. अहियारसंभालणवक्कमेदं सुगमं । * मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलस कसाय-तिवेदाण जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ।। $ ५१२. कदो ? जहण्णहिदिसंतुप्पण्णविदियसमए चेव एदासिं पयडीणं जहण्णहिदीए विणासुवलंभादो । सो वि ण अजहण्णहिदिगमणेण विणासो; विदियसमयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति हो सकती है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा सासादनसम्यक्त्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह श्रावलि प्रमाण कहा है । असंज्ञियोंमें एकेन्द्रिय प्रधान हैं अतः असंज्ञियोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल एकेन्द्रियों के समान कहा है। ५१०. आहारकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो बार छयासठ सागर है। विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी ओघके सम न उत्कृष्ट स्थिति अाहारक जीवोंके ही हो सकती है अतः आहारकों के उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। जो उपान्त्य समयमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रात करके अन्तसमयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है और तीसरे समयमें अनाहारक हो जाता है उस आहारकके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है। इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। * अब जघन्य स्थितिसत्कर्मका काल कहते हैं । $५११. अधिकारके सम्हालने के लिए यह सूत्र वाक्य आया है। जो कि सरल है। * मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थिति सत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। ६५१२. शंका-इनका जघन्य काल एक समय क्यों है ? समाधान-जघन्य स्थितिसत्त्वके उत्पन्न होनेके दूसरे समयमें ही इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका विनाश हो जाता है। यह विनाश भी अजघन्य स्थितिको प्राप्त करनेसे नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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