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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
$ १७५. आदेसेण रइय० मोह० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० बे समया । • अप्पद ० जह० एगसमझो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । अहि० ओघ - भंगो । पढमादि जाव सत्तमिति भुज० - वडि० णिर०ओघं । अप्प० जह० एगसमयो, उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा ।
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$ १७६. तिरिक्ख० मोह० भुज० अ० श्रघं । अप्पद० जह० एगसमझो, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि अंतोमुहुत्तेण । पंचिदियतिरिक्ख ० - पंचिंतिरिक्खपज्ज०-पंचिं०तिरिक्खजोणिणीसु भुज० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद० - अवहि० तिरिक्खोघं । पंचिं० तिरि० अपज्ज० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद ० - वडि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं
९ १७५. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मोहनीयकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरक में भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य नारकियोंके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
विशेषार्थ - नरक में श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो भुजगार समय प्राप्त होते हैं अतः यहाँ भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा । कोई एक असंज्ञी दो विग्रहसे नरक में उत्पन्न हुआ और उसके यदि दूसरे विग्रह में अद्धाक्षयसे तीसरे समय में शरीर को ग्रहण करनेसे तथा चौथे समय में संक्लेशक्षय से भुजगार स्थितिबन्ध हुआ तो इस प्रकार नरकमें भुजगार स्थितिके तीन समय भी प्राप्त हो सकते हैं पर यहाँ पहले कथनकी ही मुख्यता है अतः उच्चारणावृत्ति में उसीका उल्लेख किया है । जिस जीवने नरकमें उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यक्त्वका ग्रहण कर लिया है और जो अन्तर्मुहूर्तं कालके शेष रहने पर मिध्यात्व में गया उसके नरकमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । शेष कथन ओघ के समान घटित कर लेना चाहिए । इसी प्रकार प्रथमादि नरकोंमें भी कथन करना चाहिये । किन्तु वहां अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिये । यद्यपि पहले नरक में सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है और उसके अल्पतर स्थिति हो पाई जाती है । किन्तु ऐसा जीव पहले नरककी उत्कृष्ट स्थिति के साथ नहीं उत्पन्न होता अतः पहले नरक में भी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक सागरप्रमाण प्राप्त होता है ।
९ १७६. तिर्यश्नोंमें मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल घ समान हैं । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है । पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्तक और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिमती जीवों में भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट
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