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________________ ४६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ७६२. तं जहा-मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए चेव इत्थिवेदबंधावलियादिक्कतकसायहिदीए इत्थिवेदसरूवेण संकामिदाए इस्थिवेदस्सुकस्सहिदिविहत्ती होदि । तत्काले मिच्छत् समय॒णं होदि; उक्कस्सहिदीदो अधहिदिगलणाए गलिदेगसमयत्तादो । संपहि सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले मिच्छत्तस्ससमयूणुकस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण कसायहिदीए तस्सरूवेण संकामिदाए इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । तस्समए मिच्छत्तस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती; सगुक्कस्सहिदिं पेक्खिदण दुसमयूणत्तादो। एवं तिसमयणादिकमेण मिच्छत्तमोदारेयव्वं जाव आबाहाकंडएणूणहिदि पचं ति । पुणो वि आवाहाकंडयस्स हेहा मिच्छत् समऊणावलियमेत्तमोदरदि । तं जहा-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिमंतोमुहुत्तमेत्तमावलियमे वा कालं बंधतेण मिच्छत्तु कस्सहिदी वि समयूणाबाहाकंडएणूणा बद्धा। पुणो पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण बंधावलियादीदकसायहिदी तस्सरूवेण संकामिदा ताधे इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । एवं पडिहग्गावलियमेत्तकालमित्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती चेव; बंधगद्धाए चरिमावलियमेत्तक्कस्सहिदीणं तत्थ संकंतिदसणादो । मिच्छत् पुण पडिहग्गपढमसमए आबाहाकंडएणूणं विदिसमए तेण समयाहिएण तदियसमए तेण दुसमयाहिएण एवं णेदव्वं जाव पडिहग्गावलियचरिम ६७६२. उसका खुलासा इस प्रकार है-जो मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्नकालके भीतर ही स्त्रीवेदका बन्ध करता हुआ बन्धाकलिसे रहित कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण करता है उसके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है । तथा उस समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है, क्योंकि इसकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा एक समय गल गया है। अब सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय मिथ्यात्वकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न कालके भीतर स्त्रीवेदको बांधते हुए किसी जीवके कषायकी स्थितिके स्त्रीवेदरूपसे संक्रामित होने पर जिससमय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है उस समय मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए यह दो समय कम होती है। इसी प्रकार तीन समय कम इत्यादि क्रम से आबाधाकाण्डक प्रमाण कम स्थितिके प्राप्त होने तक मिथ्यात्वकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । तथा इसके बाद भी आबाधाकाण्डकके नीचे मिथ्यात्वकी स्थितिको एक समय कम आवलिप्रमाण और कम करना चाहिये । खुलासा इस प्रकार है-सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको एक अन्तर्मुहूर्तकाल तक या एक आवलि कालतक बांधते हुए किसी जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति भी एक समयकम आबाधाकाण्डकप्रमाण न्यून बांधी। पुनः प्रतिभग्नकालके भीतर स्त्रीवेदका बंध करत हुए उस जीवने बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण किया तब उस जीवके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इस प्रकार प्रतिभग्नकालके एक आवलि काल तक स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति ही होती है, क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धककालमें अन्तिम आवलिप्रमाण कषायकी उत्कृष्ट स्थितियोंका स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है। तथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्रतिभग्नकालके पहले समयमें तो एक आबाधाकाण्डकप्रमाण कम होती है, दूसरे समयमें एक समय अधिक एक आबाधाकाण्डकप्रमाण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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