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________________ गी० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियस पिण्यासो ४६१ समओ ति । वरि तत्थ मिच्छत्तु कस्सहिदी समयूरणावलियन्भहिया वाहाकंड एण ऊणा होदि । कुदो ? बंधेण समयुणावाहाकंड एणूणमिच्छत्तस्स हिदीए पुणो व अधहिदिगलणाए आवलियमेत्तद्विदीर्ण परिहाणिदंसणादो । * सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ९ ७६३. सुगममेदं । * यिमा अकस्सा | ९ ७६४. मिच्छादिद्विम्मि सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदीए श्रभावादो | रण च इत्थवेदस्स मिच्छादिहिं मोत्तण सम्माइट्ठिम्मि उक्कस्सद्विदिविहत्ती होदि; तत्थ बंधाभावेणित्थि वेदस्स पडिहग्गत्ताभावादो कसायहिदीए वि तत्थ उक्कसत्ताभावादो । * उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त एमादिं काढूण जाव एगा हिदिति । § ७६५, तं जहा--मिच्छत्तु क्कस्सहिदिं बंधिय पडिहग्गो होदून सम्मतं घेत्तण तत्थ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सडिदिविहत्ति होतॄण सम्मत्तेणंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छतं गंतूण सव्वजहण्णेण कालेण संकिलेसं गंतूण सोलसकसायाणमेगसमयमावलियमेत्तकालं कम होती है और तीसरे समय में दो समय अधिक एक आबाधाकाण्डकप्रमाण कम होती है । इस प्रकार प्रतिभग्न कालकी एक आवलिके अन्तिम समय तक मिध्यात्वकी स्थिति घटाते जाना चाहिये | इतनी विशेषता है कि वहाँ पर मिथ्यात्त्रकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम आवालप्रमाण कालसे अधिक एक आबाधाकाण्डक कालप्रमाण कम होती है, क्योंकि बन्धकी अपेक्षा एक समय कम आबाधाकाण्डक कालप्रमाण कम मिध्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिमें से अधः स्थितिगलनाके द्वारा आवलिप्रमाण स्थितियोंकी हानि और देखी जाती है । * स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति के समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति विभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ९ ७६३. यह सूत्र सुगम है । * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । ९ ७६४. क्योंकि मिध्यादृष्टि के सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जाती है । यदि कहा जाय कि मिध्यादृष्टिको छोड़कर सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति रही आवे सो भी बात नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है, अतः वहाँ पर स्त्रीवेदका पद्मपना नहीं पाया जाता है । तथा वहाँ पर कषायकी स्थिति भी उत्कृष्ट नहीं होती है । * वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम से लेकर एक स्थिति तक होती है । ९७६५. उसका खुलासा इस प्रकार है - जो जीव मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर, और प्रतिभग्न होकर, तदनन्तर सम्यक्त्वको ग्रहण करके, उसके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिका धारक होकर तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर तदनन्तर मिध्यात्वमें जाकर और सबसे जघन्य कालके द्वारा संक्लेशकी पूर्ति करके सोलह कषायों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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