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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहती ३ ११२. खेताणुगमो दुविहो जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पगदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्क० केवडि खेते ? लोगस्स असंखे भागे । अणुक्क० के० खेचे ? सव्वलोए । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय०पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरषढविअपज्ज-मुहमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०. बादराउअपज्ज-सुहुमआउ०-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज-सहमतेउ-पज्जत्तापज्जत्त-बाउ०-बादरवाउ.-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ-पज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद०-कायजोगि०-ओरालियाओरालियमिस्स०-कम्मइय-णस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-असंजदअचक्खु०-तिण्णिले भवसि०-अभवसि०-मिच्छा-असण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति। मोहनीयकर्मकी सत्तावाले शेष सब जीव अजघन्य स्थितिवाले हुए और उनका प्रमाण अनन्त है अतः ओघसे अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त कहे। तथा मार्गणाओंकी अपेक्षा विचार करने पर कहीं ओघ जघन्य स्थिति सम्भव है और कहीं आदेश जघन्य स्थिति सम्भव है। इसीप्रकार कहीं जघन्य स्थितिका काल एक समय है और कहीं अन्तमुहूर्त, अतः जहां जिस प्रकारसे जघन्य स्थितिवाले जीवोंका कम या अधिक संचय होता है वहां उसके अनुसार उनकी संख्या कही। किन्तु अजघन्य स्थितिबालोंकी संख्या सर्वत्र अपनी अपनी मार्गणाकी संख्याके अनुसार जानना चाहिये । अर्थात् जिस मार्गणामें अनन्त जीव हैं उस मार्गणामें अजघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या अनन्त जानना। तथा जिस मार्गणामें जीव असंख्यात या संख्यात हैं उसमें अजघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या असंख्यात या संख्यात जानना । इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। $ ११२. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट क्षेत्रानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक. बादर जलकायिक. बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त,सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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