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________________ ravad गा० २२ ] हिदिविहत्तीए वड ढीए पोसणं १७३ आउ०-[-बादराउ०-] बादरआउअपज्ज० - सहुमाउ० - सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्ततेउ०-बादरतेउ० - बादरतेउअपज्ज० - सुहुमतेउ० - सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज सुहुमवाउ० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त- वणप्फदि०-बादरवणप्फदि० - बोदरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - सहुमवणप्फदि - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्तणिगोद०-बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद०-मुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्जत्ते त्ति । ३१४. पंचिंदिय० - पंचि०पज्ज० - तस० - तसपज्ज. सव्वपदवि० के० खे० पो० ? लोग० असंख०भागो अहचोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । णवरि असंखेज्जगुणहाणी० ओघं । एवं पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि ति । जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पयाप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपयोप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पति कायिक अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त. सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। विशेषार्थ जैसा कि आघमें घटित करके बतला आये हैं तदनुसार असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवालोंका वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक एकेन्द्रियोंमें ही पाया जाता है अतः एकेन्द्रियोंमें उक्त पदवालोंका स्पर्श सब लोक प्रमाण बतलाया। किन्तु एकेन्द्रियोंमें शेष पद सबके नहीं पाये जाते हैं किन्तु जो पंचेन्द्रियोंमेंसे आकर एकेन्द्रिय होते हैं उन्हींके पाये जाते हैं किन्तु ऐसे जीव स्वल्प होते हैं अतः इनका वर्तमान कालीन स्पर्श तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है हां अतीत कालीन स्पर्श सब लोक बन जाता है अतः इनमें शेष पदोंकी अपेक्षा वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक कहा। मूलमें जो पृथिवी आदि दूसरी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी उक्त प्रमाण स्पर्श उसी क्रमसे बन जाता है अतः उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा । इसी प्रकार आगे और जितनी मार्गणाओंमें अपने अपने पदोंकी अपेक्षा स्पर्श बतलाया है वह उन उन मार्गणाओंके स्पर्शके अनुसार बन जाता है। अतः जिस मार्गणाका जितना स्पर्श है अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा उसका उतना स्पर्श जानना चाहिये जिसका निर्देश मूलमें किया ही है। ६३१४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और उस पर्याप्त जीवोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोकत्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन ओघके समान है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । वैक्रियिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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