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૨૭રે
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ देसूणा । आणद-पाणद-आरणच्चुद० सव्वपदा० के० खेतं पोसिदं० १ लोग० असंखे०भागो छचोद्दसभागा वा देसूणा। उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार०
आहारमिस्स० - अवगद० - अकसा० मणपज्ज० - संजद० - सामाइय-छेदो०-परिहार०सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
३१३. सव्वेइंदिय० असंखेज्जभागवड्डी-हाणी-अवहा० के० खे० पो० ? सव्वलोगो। सेसपद० वि० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । एवं पुढवी०-बादरपुढवी० - बादरपुढवीअपज्ज० - सुहुमपुढवी०-सुहुमपुढवीपज्जत्तापज्जत्त
और अच्युत कल्पके देवोंमें सभी पदवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सोलहवें कल्पके ऊपर स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका वर्तमानकालीन और कुछ अन्य पदोंकी अपेक्षा अतीत कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है। तथा सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके असंख्यात गुणहानिको छोड़कर सब पद संभव हैं अतः सब प्रकारके तिर्यंचोंमें सब पदवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। मूलमें गिनाई गई मनुष्य अपर्याप्तक आदि सब मार्गणाओंमें भी अपने अपने पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्पर्श प्राप्त होता है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तियचोंके समान कहा है। किन्तु बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन जीवोंने वर्तमानमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालमें सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है अतः उक्त तीन पदोंकी अपेक्षा इनका स्पर्श उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है। जिन कारणोंसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रेमाण या सब लोक प्राप्त होता है वे ही कारण मनुष्यत्रिकके भी समझना चाहिये अतः इनमें पंचेन्द्रियतियंचोंके समान स्पर्श बतलाया है। किन्तु मनुष्योंके नौवां गुणस्थान भी होता है अतः यहां असंख्यातगुणहानि सम्भव है। फिर भी असंख्यात गुणहानिवालोंका जो स्पर्श ओघसे कह आये हैं वही उक्त पदकी अपेक्षा मनुष्योंके जानना चाहिये क्योंकि यह पद मनुष्योंके ही होता है । देवोंमें जिसका जितना स्पर्श है सब पदोंकी अपेक्षा उसका उतना ही स्पर्श प्राप्त होता है अतः यहां उसका विशेष खुलासा नहीं किया। ‘एवं' कह कर मूलमें जो कुछ वैक्रियिकमिश्रकाययोग आदि मार्गणाएं गिनाई हैं वहां एवं' का यही अर्थ है कि जिस मार्गणाका जितना स्पर्श है अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा उस मार्गणाका उतना ही स्पर्श प्राप्त होता है ।
३१३. सभी एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा शेष पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपयोप्त,
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