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________________ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ~ ४८० . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिषिहत्ती ३ वेदो सगुक्कस्सहिदि पेक्खिय समयूणो होदिः तत्थ तदो गलिदेगसमयत्तादो । णqसयवेदे पुण उकस्सहिदिमुवगदे इत्थिवेदो णियमेण अंतोमुहुत्त णो इस्थिवेदबंधपडिसेहदुवारेण कसायाणमुक्कस्सहिदीए सह णवुसयवेदे बंधमागदे तब्बंधपढमसमय पहुडि जाव अंतीमुहुत्त ण गदं ताव कसायाणमुकस्सहिदिबंधसंभवाभावादो। तं कुदो णव्वदे ? उकस्सहिदिबंधंतरस्स जहण्णस्स वि अंतोमुहुत्तपमाणपरूवयबंधसुत्तादो। इत्थि-पुरिसवेदाणमेगसमएण बंधुवरमाणब्भुवगमादो च अंतोमुहुत्त णत्तमविरूद्धं सिद्धं । ® हस्स-रदीणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ८०४. सुगम * उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । ___८०५. पडिहग्गपढमसमए णवंसयवेदुक्कस्सहिदीए संतीए जदि हस्स-रदीणं बंधो होज्ज तो उक्कस्सा, अण्णहा अणुक्कस्सा; बंधाभावेण हस्स-रदीसु कसायहिदिसंकंतीए अभावादो। 8 उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि ति। वेदकी उत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है, क्योंकि वहां पर उसमेंसे एक समय गल गया है। परन्तु नपुंसकवेदके उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है, क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ नपुंसकवेदके बन्धको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता और स्त्रीवेदके बन्धके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त काल नहीं व्यतीत होता है तब तक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संभव नहीं है । अतः नपुलकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अन्तर्मुहूर्त कम हो जाता है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्धान्तर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है इस प्रकार कथन करनेवाले बन्धसूत्रसे जाना जाता है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी एक समयके द्वारा बन्धव्युच्छित्ति नहीं स्वीकार की गई है अतः इससे भी नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति ठीक अन्तर्मुहूर्त कम सिद्ध होती है। नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट १ - ६८०४ यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट होती है और अनुत्कृष्ट भी। ६८०५. प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए यदि हास्य और रतिका बन्ध होवे तो उनकी स्थिति उत्कृष्ट होती है अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि बन्धके विना हास्य और रतिमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं पाया जाता है। . वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कष्ट स्थितिसे लेकर अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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