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________________ गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय सरिणयासो ४६६ हिदी सक्ससहिदि पेक्खिदूग समयूणावलियाए ऊणा होदि । विदियसमए हस्सरदिबंधवोच्छेददुवारेण अरदि-सोगेसु बंधमागदेषु इत्थिवेदस्सुक्कस्सद्विदिविद्दत्ती होदि; बंधावलियादिक्कतकसायुक्कस्सद्विदीए तत्थित्थिवेदम्मि संकंतिदंसणादो । हस्स-रदिहिदी पुण सगुक्कस्सडिदिं पेक्खिदूण आवलियूर्ण; बंधाभावादो | एवं जाव दुसम - यूणावलियमेत्तमद्धाणमुवरि गच्छदि तावित्थिवेदद्विदी उक्कस्सा चेव । हस्स - रदीर्णं पुण जाव तत्तियमाणं गच्छदि ताव संगुक्कस्स हिदी दुसमपूणा दोश्रावलियूणी होदि । बंधावलियादीदकसायुक्कसहिदीए आवलियाहि ऊणा होदि । $ ७७८, तदो अण्णो जीवो दुसमयूणदोआवलियाहि ऊणियं कसायुकस - हिदिं बंधिय पुरणो समयूणावलियमेत्तकालमुकस्सडिदिं वंधिय पडिहग्गसमए इत्थिवेदहस्स-रदीसु बज्झमाणियासु बंधावलियादीदकसायहिदिं संकामिय तिन्हं पि अणुकरसद्विदिविहत्ति जादो । तदो उवरिमसमय पहुडि हस्स-रदिबंधवोच्छेददुवारेण इत्थवेदेण सह अरदि-सोगे बंधाविय पुव्वं व ओदारेदव्वं । एवं पुणो पुणो एदेा विहाणेण श्रदारेण दव्वं जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । णवरि जं जं हिदिं णिरु भिदुमिच्छदि तत्तो आवलियन्भहियमेगसमयं बंधाविय पुणो समयूणावलियमेत्तकालं कसायाणमुक्कस्सद्विदं बंधि पहिग्गसमए बज्झमाणित्थिवेद-हस्स - रदीसु पुव्वणिरुद्धहिदीए आवलि - की स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समयसे न्यून एक आवलिकाल प्रमाण कम होती है। तथा दूसरे समय में हास्य और रतिकी बन्ध व्युच्छित्तिके द्वारा अरति और शोकके बन्धको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति है; क्योंकि बन्धावलिसे रहित कषाय की उत्कृष्ट स्थितिका बहाँ स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है । पर हास्य और रति की स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक आबलि कम होती है, क्योंकि उस समय उनका बंध नहीं है । इस प्रकार जब तक दो समय कम आवलिप्रमाण काल आगे जाते हैं तब तक स्त्रीवेदकी स्थिति उत्कृष्ष्ट ही होती है । पर हास्य और रतिका उतना काल आगे जाने तक उनकी उत्कृष्ट स्थिति दो समय से न्यून दो श्रावलि कम होती है । § ७७८. पुनः अन्य जीवने एक समय तक दो समय कम दो आवलियोंसे न्यून कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके पुनः एक समय कम एक आवलि काल तक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्न कालके पहले समय में बंधनेवाले स्त्रीवेद, हास्य और रतिमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया तब वह तीनों ही प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिका धारक हुआ। तदनन्तर इसके आगे समयसे लेकर हास्य और रतिकी बन्धव्युच्छित्तिद्वारा स्त्रीवेदके साथ रति और शोकका बन्ध कराके पहले के समान हास्य और रतिकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार पुनः पुनः इस विधिसे अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक हास्य और रतिकी स्थितिको घटाते हुए लेजाना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जिस जिस स्थितिको रोकना चाहो उससे एक आवलि अधिक कषायकी स्थितिका एक समय तक बन्ध कराके पुनः एक समय कम एक आवलि काल तक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बंन्ध कराके प्रतिभग्न काल के पहले समय में बंधनेवाले स्त्रीवेद, हास्य और रतिमें पहले रुकी हुई स्थितिके एक आवलिके १. श्री. प्रतौ -'श्रावलियूणा' इति स्थाने 'विहत्तिश्रो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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