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________________ بسیجی سرمربیعی १६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिनिहत्ती ३ ग्गहणपढमसपए चेव पडिग्गहकालेणूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीमेत्तमिच्छचहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छत्सु संकामिदाए सम्मचसम्मामिच्छाचाणमुक्कस्सश्रद्धाछेदो होदि,तेस बंधाभावे वि दोण्हं पयडीणं तदुक्कस्सहिदीणं च अत्थितं सिद्ध। पडिहग्गकालो एगदु-तिसमइओ किण्ण होदि ? ण, संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहुत्तावहाणेण विणा सम्मत्तस्स गहणाणुववत्तीदो। प्रतिभग्नकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाणसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त कर देता है तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद होता है, अतः बन्धके नहीं होने पर भी दोनों प्रकृतियोंका और उनकी उत्कृष्ट स्थितिका अस्तित्व सिद्ध होता है। शंका-प्रतिभग्न कालका प्रमाण एक, दो और तीन समय क्यों नहीं होता है ? समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेशसे च्युत होकर और विशुद्धिको प्राप्त करके जब तक उसके साथ जीव मिथ्यात्वमें अन्तमुहूर्तकाल तक नहीं ठहरता है तब तक उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसीलिये प्रतिभग्न कालका प्रमाण एक, दो और तीन समय नहीं होता ।। विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियां बन्धसे सत्त्वको नहीं प्राप्त होती किन्तु मिथ्यात्व का इन दोनों प्रकृतियों रूप से संक्रमण होता है और इसीलिये मोहनीय की बन्ध प्रकृतियां २६ तथा उदय और सत्त्व प्रकृतियां २८ मानी गई हैं। यद्यपि एक सजातीय प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृतिरूप से संक्रमण दूसरी प्रकृतिके बन्धकाल में ही होता है ऐसा नियम है पर यह नियम बन्ध प्रकृतियोंमें ही लागू होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंमें नहीं, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियां नहीं हैं। इनके सम्बन्धमें तो यह नियम है कि जब कोई एक २६ प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तब वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पहले समयमें मिथ्यात्वके तीन भाग कर देता है जिन्हें क्रमसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व संज्ञा प्राप्त होती है। पर ऐसे जीवके आयु कम को छोड़ कर शेष सात कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होता है इसलिये ऐसे जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व सम्भव नहीं। अतः ऐसा जीव जब मिथ्यात्व में चला जाता है और वहां संक्लेशरूप परिणामों के द्वारा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर अन्तमुहूर्त कालके पश्चात् पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है तब उसके मिथ्यात्वकी अन्तमुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण हो जाता है और इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होती है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि मिथ्यात्वमें जाकर जिस जीवने मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है उसे सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धता प्राप्त करनेके लिये अन्तमुहूर्त से कम काल नहीं लगता है इसलिये यहां मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिमें से अन्तर्मुहूर्त काल कम किया है । तथा ऐसा जीव वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त कर सकता है प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नही, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके अन्तःकोडाकोड़ी सागर से अधिक स्थिति नहीं होनी चाहिये ऐसा नियम है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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