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________________ गा० २२ ] हिदिविहीए उत्तरपयडिद्विदिता च्छेदो १६५ मिच्छत्तस्स सत्तवाससहस्साणि उक्कस्सिया आवाहा आबाहूणिया कम्महिदी कम्मसेिति महाबंध सुत्तादो । ण च सव्वासु हिदी सत्तवाससहस्सारिण चैव चाबाहा होदि ति यिमो; एगाबाहाकंदयमेतद्विदीसुत्तणियमुवलंभादो । आवाहाकंद एणूणउक्कस्सडिदीए समयूरणसत्तवाससहस्सारिण आवाहा होदि चि एवं जाणिदूण शेय जाव धुवद्विदिनि । * एवं सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अंतोमुहुत्तणाओ । ९३६२. दाणि वे विकध्माणि जेण ण बंधपयडीओ तेण एदासिमुकस्सहिदी सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्त गाओ होदि । बंधाभावे कथमेदासिं दोहं पयडीमुकसहिदीए वा समुप्पत्ती ? मिच्छत्तसंकमादो । तं जहा - पढमसम्मत्तगणपढमसमए तिहि करणपरिणामेहि तिहाविहत्तमिच्छत्तकम्मंसेण अष्ठावीस संतकमियमिच्छाडि बद्धमिच्छतु कस्सडिदिया तो मुहुत्त पडिहरणेण पुणो सम्मतसे जाना जाता है ? समाधान- 'मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा सात हजार वर्ष प्रमाण है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक हैं महाबन्धके इस सूत्र से जाना जाता है कि जिस समय प्रबद्धमें मिथ्यात्वक उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कर्मस्कन्ध हैं वहाँ प्रथम समयसे लेकर सात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिके भेदों में एक भी कर्मस्कन्ध नहीं है । यदि कहा जाय कि समस्त स्थितियों में सात हजार वर्ष प्रमाण ही आबाधा होती है ऐसा नियम है सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितियों में ही उक्त नियम देखा जाता है, अतः आबाधाकाण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिकी एक समय कम सात हजार वर्ष प्रमाण बाधा होती है ऐसा समझना चाहिये। आगे भी इसी प्रकार जानकर ध्रुवस्थिति तक ले जाना चाहिये । * इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति है । पर इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । ९ ३६२. चूंकि ये दोनों ही क्रर्म बँधते नहीं हैं, इसलिये इनकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होती है । शंका-ब बन्धके नहीं होने पर इन दोनों प्रकृतियोंकी और उनकी उत्कृष्ट स्थितिकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान - मिध्यात्वका संक्रमण होकर इन दोनों प्रकृत्तियोंकी और उनकी उत्कृष्ट स्थिति की उत्पत्ति होती है । उसका खुलासा इस प्रकार है-तीन करण परिणामोंके द्वारा जिसने प्रथमोपशम सम्यक्त्वके ग्रहण करने के पहले समय में सत्ता में स्थित मिध्यात्व कर्मको तीन भाग़ों में बांट दिया है ऐसा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव जब उत्कृष्ट स्थितिके साथ मिथ्यात्व कमैको बांधकर उत्कृष्ट स्थिति बन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामों से निवृत्त होने में लगनेवाले अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालके द्वारा पुनः सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में ही उक्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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