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________________ गां० २२ ) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो ४५ १८१५. हस्स-रदीण णियमा अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । भय-दुगुंछाणं णियमा उक्कस्सा; धुवबंधित्तादो । भय-दुगुंछाणं णिरु भणं कादूण भण्णमाणे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-तिण्णिवेदाणमरदिसोगभंगो । हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं णवंसयवेदभंगो । ६.८१६. एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदण सण्णियासपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदृणुक्कस्ससण्णियासं कस्सामो । पुणरुत्तमिदि एत्थ अण्णयरो ण कायव्यो आइरियाणमुवदेसंतरजाणावण परूविदाए पुणरुत्तदोसाभावादो। ८१७. सण्णियासो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तउक्कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि, किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा । अंतोमुहुत्तणमादिं कादूण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमु व्वेल्लणकंडएणूणा । सोलसक० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । · उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणा । चत्तारिणोक० किमुक० अणुक्क० ? णियमा अणुक्क० अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण -- १८१५. हास्य और रतिकी स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तः. कोड़ाकोड़ी सागर तक नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। तथा भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं। भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए सन्निकर्षका कथन करनेपर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और तीनों वेदोंका भंग अरति और शोकके समान है। तथा हास्य, रति, अरति और शोकका भंग नपुंसकवेदके समान है। १८१६. इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर सन्निकर्षका कथन करके अब उच्चारणाका आश्रय लेकर उत्कृष्ट सन्निकर्षको बताते हैं। यदि कोई कहे कि जिसका चूर्णिसूत्र द्वारा कथन किया है उसका उच्चारणा द्वारा कथन करने पर पुनरुक्त दोष आता है, अतः किसी एकका कथन नहीं करना चाहिये सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आचार्यों के उपदेशोंमें अन्तरका ज्ञान करानेके लिए चूर्णिसूत्रके कथनके बाद भी उच्चारणाका कथन करने पर पुनरुक्त दोष नहीं आता है। १८१७. सन्निकर्ष हो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो क्या उत्कृष्ट होती या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक होती है । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकके सन्निकर्ष विकल्पों से न्यून होती है । सोलह कषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होती है। उनमें अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है। चार नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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