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जयधवासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहती ३
तस्स विदियसमये रइयस्स सागरोवमसहस्सस्स सच सभागा पलिदो० संखे०भागेण ऊणा जहण हिदिश्रद्धाछेदो होदि । णेरेइ सण्णिपंचिदित्र संतो अंतोकोडाकोडिदि मिच्छस्स किण्ण बंधदि ? सरीरे गहिदे पढमसमय पहुडि अंतोकोडाकोहि चैत्र बंधदि, किं तु विग्गहगदीए असण्णिद्विदिं चैव बंधदि, पंचिंदियपाओग्गजण हिदी तत्थ संभवादो असण्णिपंचिंदियपच्छायदत्तादो वा ।
९ ३८५. एवं बारसकसाय-भय-दुर्गुछाणं पि वतव्यं । णवरि सागरोवमसहस्सस्स चचारि सत्तभागा पलिदोवमस्स संखे० भागूणा । एवं सत्तणोकसायाणं । इत्थवेदस्स जहण्णद्धाछेदो ताव वुच्चदे । तं जहा - जो सण पंचिंदि हदसमुप्पत्तियकमेण कयतत्थतणजहण्णडिदिसंतकम्मो तेण बंधावलिया दिक्कतकसायद्विदिसंतकम्मे सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागमेचे पलिदो ० संखे ० भागेणूणे इत्थवेदम्मि संकामिय णेरइये सुप्पण्णपढसमए इत्थवेदबंधवोच्छेदे कदे कसाय हिदी इत्थवेदमिण संकमदि; बंधाभावेण पडिग्गहत्ताभावादो । तदो अंतोमुहुत्तकालं पुरिस
है ऐसा कोई एक असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जब विग्रहगति से नारकियों में उत्पन्न होता है तब उस नारकीके दूसरे समय में हजार सागरके सात भागों में से पल्यके संख्यातवें भागसे न्यून सातों भाग प्रमाण जघन्यस्थिति होती है ।
शंका- नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय है, अतः वह मिध्यात्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको क्यों नहीं बाँधता है ?
समाधान- नारकी जीव शरीर ग्रहण करने पर प्रथम समयसे लेकर अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिको ही बाँधता है किन्तु वह विग्रहगति में असंज्ञीकी स्थितिको बाँधता है, क्योंकि पंचेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिका पाया जाना नरककी विग्रहगतिमें संभव है । अथवा वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायसे लौटकर आया है, इसलिये भी वहाँ असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थिति पाई जाती है ।
९ ३८५. इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थिति हजार सागर के सात भागों में से पल्यका संख्यातवाँ भाग कम चार भाग प्रमाण होती है। इसी प्रकार शेष सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है । उनमें से पहले स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - जिस असंज्ञी पंचेन्द्रियने हतसमुत्पत्तिकक्रमसे असंज्ञीके योग्य जघन्यस्थिति सत्कर्मको प्राप्त कर लिया है वह बालिके व्यतीत होने पर हजार सागर के सात भागों में से पल्योपम के संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण कषायके स्थितिसत्कर्मका स्त्रीवेदमें संक्रमण करके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उत्पन्न होने पर पहले समय में स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होनेसे उसके कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदमें संक्रमण नहीं होता, क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होने से उसमें प्रतिग्रह शक्ति नहीं रहती। ऐसा जीव तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक पुरुषवेदका बन्ध करके पुनः अन्तर्मुहूर्त
१. ० प्रतौ खेरइएस इति पाठः ।
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